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कर्पूरी ठाकुर के प्रिय गीत-हम मुर्दा दिलों को जलाने चले हैं

कहानी भारत रत्न कर्पूरी ठाकुर की,,,

up80.online by up80.online
January 26, 2025
in अन्य राज्य, दिल्ली, देश, बिहार, यूपी, राजनीति
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Ex CM Karpuri Thakur (file photo)

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दुर्गेश कुमार, पटना
समाजवादी नेताओं में डॉ. राम मनोहर लोहिया के बाद सबसे ज्यादा चर्चा कर्पूरी ठाकुर की होती है. असल में कर्पूरी ठाकुर भारत के उस जनमानस का का प्रतिनिधित्व करते है, जो जातीय वर्चस्ववादी व्यवस्था में अपने अधिकारों के लिए चुप्पी साधे हुए रहता है. आजादी की लड़ाई के दिनों में संघर्ष में शामिल युवा कर्पूरी ठाकुर ने एक रचना लिखी थी, जिसे अक्सर वे गाया भी करते थे।

हम सोये हुए वतन को जगाने चले है, हम मुर्दा दिलों को जलाने चले है.
गरीबों को रोटी न देती हुकूमत, हम जालिमों से लोहा बजाने चले है.

उन्हीं दिनों उनका जयप्रकाश नारायण से संपर्क हुआ था. हालाँकि कर्पूरी ठाकुर की कहानी यहाँ से शुरू नहीं होगी. कर्पूरी ठाकुर को याद करने के लिए हमें उनके गाँव को याद करना होगा, उनके पिता गोखुल ठाकुर को याद करना होगा, जिनका पेशा उनकी जाति नाई का परंपरागत पेशा हजामत करना था. देश के असल जननायक का जन्म 24 जनवरी 1924 को समस्तीपुर जिले के इस्माइल नगर उर्फ पितौंझिया (अब कर्पूरी ग्राम) गांव में हुआ था. ठाकुर की प्रारंभिक शिक्षा पितौंझिया प्राथमिक विद्यालय, माध्यमिक शिक्षा ताजपुर मिडिल इंग्लिश स्कूल, तिरहुत अकादमी, समस्तीपुर और आगे की शिक्षा चंद्रधारी मिथिला कॉलेज, दरभंगा से हुई. हालाँकि उन्होंने बी.ए. तृतीय वर्ष तक अध्ययन किया था. लेकिन यह ठाकुर न तो पूज्य जाति से थे न तो इन्हें सामाजिक व्यवस्था में समता का अधिकार हासिल था. उनके पिता गोखुल ठाकुर निर्धन थे. जीविकोपार्जन के लिए गाँव के लोगों के दरवाजे पर जा कर हजामत करना उनका पुश्तैनी काम था.

बहरहाल, पढ़ाई-लिखाई से लेकर सामान्य जीवन में भी उन्हें कई बार अपमानजनक व्यवहार का सामना करना पड़ा था. ये 1938 की घटना है जब उनकी उम्र केवल 14 साल की उम्र में उन्होंने प्रथम श्रेणी से मैट्रिक पास की. इसके बाद किस्सा यूँ है कि उनके पिता गोखुल ठाकुर उत्साहित हो कर उनके गाँव के एक जमींदार के पास उनको ले कर गये. उन्हें उम्मीद थी कि वह आदमी उनके पुत्र के लिए कुछ मार्गदर्शन देगा. लेकिन परिणाम इसका उल्टा हुआ. जमींदार ने कहा, “ बहुत अच्छा, अब आओ हमारा पैर दबा दो”.

कुछ इसी तरह प्रारंभिक पढ़ाई के दौरान उन्हें गाँव के एक व्यक्ति ने सवर्ण बच्चों के साथ पढ़ाने से इनकार कर उन्हें कुछ दूर पर बैठ कर सुनने को कहा जिससे कि लोगों को पता भी न चल सकें कि वो एक नाई जाति के लड़के कर्पूरी को पढ़ा रहा है और कर्पूरी की पढ़ाई भी संभव हो सकें. लेकिन ध्यान रहे कि सामाजिक क्रम में पिछड़ी हुई नाई जाति का इतिहास बेहद गौरवशाली रहा है. जिस पाटलिपुत्र की गद्दी पर बैठने के लिए कर्पूरी ठाकुर को अपमानजनक यात्रा से गुजरना पड़ा, उसी का शासन करने वाला नंद वंश भी पेशे से एक नाई परिवार ही था. इसलिए कर्पूरी ठाकुर की जाति के निम्न क्रम होने से य धारणा पाल लेना कि इसकी बौद्धिक क्षमता भी कम होगा, यह सही नहीं होगा. कर्पूरी ठाकुर ने आगे चल का अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से बेहद अल्प कार्यकाल में बड़े-बड़े फैसले ले कर यह साबित कर किया. इन्हीं परिस्थितियों में कर्पूरी ठाकुर युवावस्था की दहलीज पर पांव रखते ही स्थानीय युवा संस्था और पुस्तकालय संचालन में सक्रिय हो गये और फिर भारत छोड़ों आन्दोलन में सक्रिय होने के कारण स्नातक की पढ़ाई छोड़ दी. जेपी के संपर्क में आये और स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए उन्होंने 26 महीने जेल में बिताया.

राजनीति में जननायक का सफ़र
भारत छोड़ों आन्दोलन के बाद कर्पूरी ठाकुर का राजनीतिक करियर धीरे-धीरे परवान चढ़ने लगा. 1945-47 में वे दरभंगा जिला कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के सचिव थे. 1948-52 में बिहार सोशलिस्ट पार्टी के सचिव और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, बिहार के अध्यक्ष बने. भारत की स्वतंत्रता के बाद, कर्पूरी ठाकुर ने अपने गांव के स्कूल में कुछ समय के लिए शिक्षक के रूप में काम किया. 1952 के पहले आम चुनावों में वे समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार के रूप में बिहार विधान सभा के सदस्य बने और अपनी मृत्यु तक विधान सभा के सदस्य बने रहे. 1969-72 में वे अखिल भारतीय संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष रहे. वे भारतीय लोक दल के गठन के बाद सदैव इसके सदस्य बने.गठबंधन की राजनीति में वे अपने राजनीतिक जीवन में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी, समाजवादी पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, भारतीय लोक दल, जनता पार्टी, दलित मजदूर किसान पार्टी और लोक दल जैसे विभिन्न दलों से जुड़े रहे, किन्तु बिहार और देश में अपने समय में सदैव ही नक्षत्र का सितारा बन का रहे. डॉ. राम मनोहर लोहिया भी उनसे बेहद प्रभावित थे. एक बार उन्होंने कर्पूरी ठाकुर के बारे में कहा ‘’काश हमारे पास कर्पूरी ठाकुर जैसे और नेता होते।

कर्पूरी ठाकुर न सिर्फ ईमानदार और कर्मठ नेता थे, बल्कि वे जनसंघर्ष करने वाले नेता भी थे. साल 1960 में केंद्र सरकार के कर्मचारियों की हड़ताल का नेतृत्व करने के लिए उन्हें गिरफ्तार किया गया था. 1970 में टेल्को मजदूरों के मुद्दों के लिए 28 दिन तक भूख हड़ताल किया था. आपातकाल के दौरान उन्होंने बिहार छात्र आंदोलन और संपूर्ण क्रांति का नेतृत्व किया. कर्पूरी ठाकुर का जीवन जनता के सवाल पर संघर्षों से भरा रहा है. शायद यही कारण है कि उन्हें जननायक कहा जाता है. 1952-74 तक वे बिहार विधान सभा के सदस्य रहे. विपक्ष के नेता के रूप में उनके तथ्यात्मक सवालों से सरकार असहज हो जाया करती थी. वही जब वे सत्ता पक्ष में होते तो स्थापित ताकतें उनके जनोन्मुखी फैसलों से असहज हो जाती थी. वे बिहार के एक बार उप मुख्यमंत्री और दो बार मुख्यमंत्री बनने में सफल रहे. उन्होंने अपने पूरे जीवन में मात्र एक बार 1984 लोकसभा चुनाव में हारे।

सीएम बनने से चूके
आजादी के बाद से ही वे सदन का हिस्सा रहे. इस दौरान वे अपने भाषणों और सूझ बुझ से बिहार के जन-जन में छा चुके थे. उनका सादा जीवन और ईमानदार व्यक्तित्व का कोई जोड़ नहीं थे. प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी के विलय के बाद वे डॉ. लोहिया के भी बेहद करीब हो गये थे. चूँकि लोहिया का सारा जोर पिछड़ी जातियों के बीच से नेतृत्व उभरने पर था, ऐसे में कर्पूरी ठाकुर बिहार में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के सर्वमान्य नेता बन चुके थे. ध्यान रहे कि उन्हें जयप्रकाश नारायण का भी भरपूर समर्थन था. संविद सरकार 1967 में बिहार सरकार में उपमुख्यमंत्री और शिक्षा व वित्त मंत्री बने. शिक्षा मंत्री के रूप में उनके महत्वपूर्ण निर्णयों में से एक मैट्रिक पास करने में अंग्रेजी पास करने की अनिवार्यता ख़त्म करने को माना जाता है. दरअसल, अंग्रेजी पढ़ना गाँव के गरीब परिवार के बच्चों के लिए अत्यंत ही मुश्किल भरा काम था. नतीजतन, अधिकांश बच्चें बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते थे. कर्पूरी ठाकुर ने अंग्रेजी पास करने की अनिवार्यता ख़त्म की तो उसका व्यापक असर बाद के दिनों में दिखाई दिया. बड़ी संख्या में ग्रामीण परिवेश के युवक स्नातक की शिक्षा प्राप्त करने लगे. हालाँकि स्वयं कर्पूरी ठाकुर के लिए उपमुख्यमंत्री बनना बेहद तकलीफ़देह था. घटना यूँ है कि 1967 के चुनाव में परिणाम कांग्रेस के विपक्ष में आया था. गैर कांग्रेसी दलों जिसे संयुक्त विधायक दल (जन संघ, जन क्रांति दल, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी) को अपना विधायक दल का नेता चुनना था. लगभग कर्पूरी ठाकुर का नेता चुनना तय माना जा रहा था. लेकिन एक नाई का बेटा बिहार का मुख्यमंत्री बने और उसे रामगढ़ के राजा कामख्या नारायण सिंह, जो जन क्रांति दल के सर्वेसर्वा थे, समर्थन दें, इसके लिए वे तैयार नहीं थे. विधायक दल की बैठक में कर्पूरी ठाकुर के मित्र कहे जाने वाले रामानंद तिवारी और कपिलदेव सिंह ने भी कामख्या नारायण सिंह के स्टैंड पर मौन सहमति जताई. कर्पूरी ठाकुर की जगह जन क्रांति दल के महामाया प्रसाद सिन्हा का चयन मुख्यमंत्री पद के लिए किया गया. बिहार की गद्दी के स्वाभाविक दावेदार कर्पूरी ठाकुर को उपमुख्यमंत्री बनना पड़ा.

हालाँकि समय ने करवट लिया. महामाया प्रसाद सिन्हा सरकार नाराजगी के सवाल पर बिहार लेनिन जगदेव प्रसाद द्वारा कड़ा रुख अपनाया गया. उन्होंने आरक्षण के सवाल पर कठोर कदम नहीं उठाने के लिए महामाया प्रसाद सिन्हा की सरकार से अपने कदम वापस खींच लिए थे. असल में राम मनोहर लोहिया ने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) में प्रस्ताव पारित किया था कि 1967 के राष्ट्रीय चुनाव और विधानसभा चुनाव में 60 प्रतिशत टिकट दलित, पिछड़ा, अति-पिछड़ा, मुस्लिम और महिलाओं को दिया जाएगा. विधानसभा के चुनाव में 68 सीटों पर सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार जीते थे. बिहार में गठबंधन की सरकार के तहत पहली गैर कांग्रेसी सरकार में महामाया प्रसाद मुख्यमंत्री और कर्पूरी ठाकुर उप मुख्यमंत्री बनाये गये थे. उस सरकार में सिर्फ 20 प्रतिशत पिछड़ों को मंत्री बनाया गया, उसमें भी अधिकतर राज्य मंत्री थे. सरकार में कैबिनेट मंत्री अधिकतर अगड़ी जाति से थे और वह भी आठवीं-दसवीं पास। यह सोशलिस्ट पार्टी के मूल सिद्धांत के विपरीत था. तब जा कर जगदेव प्रसाद ने सरकार से समर्थन वापस लिया और सतीश प्रसाद सिंह कार्यवाहक मुख्यमंत्री और फिर वी. पी. मंडल मुख्यमंत्री बने. कुल मिलाकर देखा जाय तो यह दौर सिर्फ पिछड़ी जाति के नेताओं के उदय का नहीं था, बल्कि इन पिछड़ी जाति के नेताओं के आपसी टकराव का भी था, हालाँकि यह मुद्दा अधिकार हासिल करने को लेकर तरीके को लेकर था. कर्पूरी ठाकुर, जगदेव प्रसाद, वी. पी. मंडल तीनों पिछड़ी जातियों के हिमायती थे. लेकिन तीनों का तरीका अलग था.

हालाँकि 1970 में दरोगा प्रसाद राय के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार गिरने के बाद कर्पूरी ठाकुर बिहार का मुख्यमंत्री बनने में पहली बार सफल रहे. इस कार्यकाल में उन्होंने अपने एक संवेदनशील फैसले में नदी पार करने का टैक्स हटाने का निर्णय लिया. यह ऐसा टैक्स था जो पुराने जमाने से चला आ रहा था, जो किसी भी व्यक्ति को नदी पार करने के समय टैक्स के रूप से देना पड़ता था. यह सरकार ज्यादा दिन नहीं चली और साल भर के भीतर ही गिर गई.

बिहार में पहली पर पिछड़ों को आरक्षण
पुनः दूसरी बार वे 1977-79 के दौरान बिहार के मुख्यमंत्री रहे. इस कार्यकाल में उन्होंने मुंगेरी लाल कमीशन आयोग के आधार पर सरकारी नौकरियों में आरक्षण की घोषणा की. जो आगे चल कर ‘’कर्पूरी फार्मूला’’ के नाम से जाना जाता है. हालाँकि कर्पूरी ठाकुर के आरक्षण फार्मूले को तब भी संतोषजनक नहीं कहा गया था. लेकिन हिंदी पट्टी में पहली बार किसी राज्य में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया और उसमे भी अति पिछड़ी जातियों के लिए सब कोटा का प्रावधान करना बेहद महत्वपूर्ण था. हालाँकि तब समाजवादी नेताओं ने कर्पूरी ठाकुर के आरक्षण फार्मूले को ‘’जयप्रकाश फार्मूला’’ कह कर आलोचना भी किया था.

हालाँकि उक्त फैसले को जयप्रकाश का फार्मूला कहना अतिश्योक्ति होगी. इसके लिए एक घटनाक्रम को जानना होगा.

बिहार में 24 जून 1977 को मुख्यमंत्री बनने के बाद कर्पूरी ठाकुर ने समस्तीपुर लोकसभा से इस्तीफा दे दिया था. उनके इस्तीफे से खाली हुई 1978 के लोकसभा चुनाव में प्रचार के लिए चौधरी चरण सिंह समस्तीपुर आए हुए थे. तब जनता पार्टी के उम्मीद्वार अजीत कुमार मेहता और कांग्रेस के उम्मीदवार केके मंडल थे. अजीत मेहता कुशवाहा जाति के थे, इसी को देखते हुए केके मंडल को बाहर से बुलाकर कांग्रेस ने उम्मीदवार बनाया ताकि ताकि यादवों के वोट कांग्रेस को मिले. समस्तीपुर की एक चुनावी सभा में चौधरी चरण सिंह ने कहा कि मैं भी यादव हूं, यादव तो वोट मेरे लिए ही करेंगे. इस चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार केके मंडल की हार हो गई थी. चरण सिंह के इस बयान का प्रभाव यह हुआ था कि इस चुनाव में यादवों का वोट जनता दल और कांग्रेस दोनों को मिला. चौधरी चरण सिंह के साथ उसी चुनावी सभा में कर्पूरी ठाकुर ने यह भी ऐलान किया कि वो मुंगेरी लाल कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर आरक्षण लागू करेंगे. लिहाजा उसकी प्रतिक्रिया में कांग्रेस के अलावा समाजवादियों की तरफ से भी नाक भौं सिकोड़ा गया. अगले ही दिन पटना में जेपी ने कहा कि वो आर्थिक आधार पर आरक्षण के पक्ष में हैं जाति के आधार पर नहीं. लेकिन वे 1977 में समस्तीपुर संसदीय क्षेत्र से जनता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में छठी लोकसभा के लिए चुने जाने के तीन महीने बाद कर्पूरी ठाकुर ने बिहार का मुख्यमंत्री बनने के लिए लोकसभा से इस्तीफा दे दिया. आगे चल कर कर्पूरी ठाकुर ने जो आरक्षण लागू किया वो न तो मुंगेरी लाल कमीशन का फार्मूला था न जयप्रकाश का फार्मूला था, यह कर्पूरी फार्मूला था. साल 1978 में कर्पूरी ठाकुर ने अति पिछड़ों के लिए 12 प्रतिशत, पिछड़ों के लिए 8 प्रतिशत, महिलाओं के लिए 3 प्रतिशत और गरीब जाति के सामान्य परिवारों के लिए भी लिए 3 प्रतिशत आरक्षण लागू किया था. वैसे जयप्रकाश नारायण का सान्निध्य कर्पूरी ठाकुर को युवावस्था से ही मिलता रहा था. जयप्रकाश नारायण पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के पक्षधर नहीं माने जाते थे. शायद इसी लिए कर्पूरी ठाकुर और जयप्रकाश नारायण के संबंधों को लेकर उन पर तोहमत लगाया जाता रहा हो.

इसके अलावा कर्पूरी ठाकुर ने अपने कार्यकाल के दौरान बिहार में शराबबंदी लागू की और पिछड़े क्षेत्रों में कई स्कूल और कॉलेज स्थापित किए. सिंचाई विभाग में नौकरी देने के लिए एक ही दिन गाँधी मैदान में कैंप लगा कर 6000 युवकों को नियुक्ति पत्र दे दिया. अपने कार्यकाल के दौरान दलितों की हत्या और उत्पीड़न से परेशान हो कर कर्पूरी ठाकुर ने 400 दोनाली बंदूकें खरीदने का आदेश दे कर दलित परिवारों में वितरित करने को कहा, हालाँकि दबाव बढ़ने पर बाद में अपने फैसले को वापस ले लेना पड़ा. उन्होंने सरकारी दफ्तरों में कामकाज में हिंदी को अनिवार्य कर ब्रिटिश परंपरा को ख़त्म कर दिया. कर्पूरी ठाकुर का व्यक्तित्व अपनी बेहद ही तेजस्वी और सूझ बुझ वाले नेता का रहा है, जो अपनी सीमित शक्ति और कार्यकाल में क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए याद किए जाते हैं.

कर्पूरी ठाकुर के व्यक्तित्व का एक न्यायिक पहलू यह था कि उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन को सार्वजानिक जीवन के दायरे से प्रभावित नहीं होने दिया. उनका लिबास, रहन-सहन, परिवार बिलकुल सामान्य रहा. उनके पास न तो कोई गाड़ी था, न कोई कोठी. उनका पैतृक मकान जीर्ण-शीर्ण अवस्था में ही रहा. उन्होंने अपने परिवार के लिए कभी भी वीआईपी सुविधा नहीं ली. नतीजतन बिहार में विपक्ष का नेता रहते हुए भी उनके पिता कि पिटाई गाँव में ऊँची जाति के एक व्यक्ति ने इसलिए कर दी थी क्योंकि वे बुलाने पर दाढ़ी बनाने के लिए उसके दरवाजे पर नहीं पहुंचे थे. उनके पिता गोखुल ठाकुर तब बीमार थे. लेकिन, सामंती सोच में संवेदनाओं की जगह कहाँ होती है. कर्पूरी ठाकुर के पिता की पिटाई की खबर जब अख़बारों में छपी तो कर्पूरी ठाकुर ने उस पर गुस्सा करने और पुलिस कार्रवाई करने से इंकार करते हुए गांधीवादी रुख दिखाते हुए उल्टे उस व्यक्ति से जाकर अपने पिता की तरफ से माफ़ी मांग ली. इस घटना से यह समझा जा सकता है कि कर्पूरी ठाकुर के लिए उनका मुद्दा सिर्फ अपना नहीं था, बल्कि वे सारे बिहार को लेकर सोचते थे. वे कभी भी अपनी शक्ति का इस्तेमाल अपने निजी उद्देश्यों के लिए नहीं करते थे.

अपमान से भारत रत्न तक
मुख्यमंत्री बनने के बाद भी उनको अपने कई फैसलों के लिए ऊँची जातियों का कोपभाजन का शिकार होना पड़ा. यथा आरक्षण लागू करने के बाद भारतीय जन संघ के विधायकों और समर्थकों ने पटना में खूब विरोध किया. उनकी सरकार से समर्थन वापस ले लेने के अलावा खूब अपशब्द कहे गये. तो कई बार ओबीसी कि महत्वपूर्ण जातियों के नेताओं ने भी उन पर दबाव बनाया कि अमूक फैसले को जल्दी ही लागू करिए. कर्पूरी ठाकुर पर मुंगेरी लाल कमीशन की रिपोर्ट से अलग हट कर आरक्षण लागू करने के लिए भी उनकी आलोचना की गई. पिछड़ी जातियों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले नेताओं के तरफ से उन पर आरोप लगता था कि वे जयप्रकाश नारायण के इशारे पर काम करते है. एक बार विधानसभा में उन पर गजेन्द्र प्रसाद हिमांशु ने कपटी ठाकुर कह दिया. उसके बाद से इस नाम से कई नेताओं ने उन्हें मंच से नवाजा था. जेपी टू बीजेपी पुस्तक में दर्ज है कि 1960 के दशक में ऊँची जाति के एक विधायक बसावन सिंह ने उन पर चप्पल उठा लिया था. भारतीय जनसंघ के ऊँची जाति से आने वाले से किसी एक विधायक ने उन्हें गालियाँ दी थी, ‘’आरक्षण कहाँ से आई, कर्पूरी के माई बियाई’’. गाँवों में असभ्य नारे उछाले गये, कर कर्पूरी, कर पूरा, गद्दी छोड़, धर उस्तरा. किन्तु अपमान से कर्पूरी ठाकुर डिगने वाले नहीं थे. उन्होंने वह किया, जिसके कारण उनके विरोधियों को भी उन्हें भारत रत्न से नवाजना पड़ा.

किस माहौल में लागू हुआ कर्पूरी आरक्षण फार्मूला
बिहार में कर्पूरी ठाकुर को शक्ति देने के लिए सड़कों पर लोग थे. कर्पूरी ठाकुर की परिस्थितियों को भी समझना होगा. पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने की मांग को लेकर 9 मार्च 1978 को गांधी मैदान में भारी जुटान हुआ था. सभा की सदारत फायरब्रांड समाजवादी नेता राम अवधेश बाबू सिंह कर रहे थे और निशाने पर जयप्रकाश नारायण थे. उन्होंने कहा, यदि दक्षिण में द्विजों का नेता सी राज गोपालाचारी है तो उत्तर में द्विजों का नेता जयप्रकाश नारायण है. पटना का राजनीतिक माहौल गरम हो चुका था. उस माहौल को कर्पूरी ठाकुर चुप चाप देख रहे थे। वैचारिक प्रतिबद्धता के बावजूद भी कर्पूरी ठाकुर की अलग तरह की विवशता थी. उन पर रामानंद तिवारी, कपिलदेव सिंह, कैलाशपति मिश्रा जैसे नेताओं का दबाव था. तब बिहार पुलिस ने पटना स्टेशन से लेकर फ्रेजर रोड समेत हर इलाके में जो जहां दिखा उस पर पुलिस ने लाठियां भांजी. निर्मम तरीके से हुए प्रहार से त्रस्त होकर लोग पटना के मकानों और दुकानों में दुबक गए। पटना में बाहर से आए लोग लाखों की संख्या में थे लेकिन पुलिस के आतंक की वजह से सड़कों पर सन्नाटा पसरा हुआ था। दोपहर में बात राम लखन सिंह यादव तक पहुंची. राम लखन सिंह यादव का अपना दबदबा था। कांग्रेस में रहने के बावजूद भी पिछड़ों के नेता के तौर पर देखे जाते थे. बिहार की राजनीति में उन्हें शेर ए बिहार की उपाधि प्राप्त थी. उन्होंने डीजीपी को फोन कर फटकार लगाया। क्यों जी डीजीपी… लाठी चलाते हो! …… तो अपने पुलिस को निकालो.. हम भी अपने लोग निकालते हैं.

राम लखन सिंह यादव के हड़काने के बाद पुलिस की कार्रवाई शांत हुई. शाम को 4 बजे होते होते पटना के आस पास के गांवों के लोगों की भीड़ भी गांधी मैदान में उमड़ पड़ी। गांधी मैदान पूरी तरह पट चुका था. गांधी मैदान से पिछड़ों के हुए उदघोष से बिहार की राजनीति में उबाल आ गया था. कांग्रेस तो विपक्ष में थी, टकराव जनता पार्टी के अंदर अगड़ा बनाम पिछड़ा का था. उधर राम अवधेश बाबू का संगठन पिछड़ा वर्ग संघ के नेतृत्व में पूरे बिहार में जेल भरो आंदोलन की शुरुआत हुई. 10 दिनों तक प्रदेश के जिला मुख्यालयों पर प्रदर्शन हुआ. जेल भरो आंदोलन में रणनीति के तहत लोगों ने गिरफ्तारियां दी। दस दिनों में प्रदेश भर में 15 हजार गिरफ्तारी हुई थी.

इसके बाद 14 मार्च 1978 को पटना में आरएल चंदापुरी, शिव दयाल चौरसिया और महाराज सिंह भारती के नेतृत्व में पिछड़ी जातियों के लोगों ने विशाल प्रदर्शन किया।

चंदापुरी के संगठन के द्वारा गांधी मैदान में जुटान का आह्वान किया गया था। किंतु पुलिस ने सारे रास्तों की बैरिकेडिंग की थी, प्रदर्शन पर रोक लगा दिया गया था. किंतु चंदापुरी को चिल्ड्रेन पार्क में सभा करने की इजाजत दी गई, जो छोटा पड़ गया. लिहाजा लोग सड़कों पर भर गए। पुलिस ने बल प्रयोग किया जिसमे दर्जनों लोग घायल हुए। उस प्रदर्शन में चंदापुरी की कनपटी पर बंदूक तक ताना गया. किंतु संघर्ष जारी रहा. अगले दिन कर्पूरी ठाकुर से जब चंदापुरी की मुलाकात हुई तो उन्होंने उनसे कहा कि चंदापुरी जी आपने मेरे काम को आसान बना दिया.

तब जाकर नवंबर 1978 में कर्पूरी ठाकुर ने आरक्षण की घोषणा की तो विरोध म पटना की सड़कों पर तांडव तीन दिनों तक चला. यह तांडव तब रुका जब पिछड़ी जातियों के छात्रों से सीधी चुनौती देने के लिए सड़क पर उतरने की शुरुआत की. कर्पूरी ठाकुर पुलिसिया कार्रवाई से परहेज करने के पीछे सोचा जा सता है कि क्या कारण रहे होंगे. संभवतः यह पिछड़ी जातियों के प्रतिरोध का प्रारंभिक काल था, जिसमें वो सधी चाल चल रहे थे.

हालांकि आरएल चंदापुरी ने कर्पूरी की तीखी आलोचना करते हुए लिखा है कि महिलाओं एवं ऊंची जातियों के गरीब लोगों के लिए सात प्रतिशत आरक्षण की घोषणा कर सरकार ने संविधान की मर्यादा को भंग किया था। वास्तव में आरक्षण का फार्मूला कर्पूरी का फार्मूला नहीं था. वह जयप्रकाश नारायण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा ब्राम्हणवादियों का फार्मूला था, जो पिछड़ा वर्ग आंदोलन को तोड़ने के उद्देश्य से बनाया गया है.

लेकिन संभवतः चंदापुरी का यह बयान थोड़ा तीखा था. जयप्रकाश नारायण तो आर्थिक आधार पर आरक्षण के पक्ष में थे. कर्पूरी ठाकुर का यह कहना कि आपने मेंरा काम आसान कर दिया, यह दर्शाता है कि वे एक चतुर सुजान की तरह समय का इंतजार कर रहे थे. जिसकी परिणति में उत्तर भारत में बिहार पहला राज्य बना जहाँ पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण लागू हुआ.

आरक्षण के बाद कर्पूरी सरकार की बलि
आरक्षण लागू करने के बाद कैलाशपति मिश्र के जनसंघ ने कर्पूरी ठाकुर से समर्थन वापस ले लिया. इसके अलावा जनता पार्टी में शामिल ऊंची जाति के विधायकों ने भी आरक्षण नीति के कारण उनके खिलाफ विद्रोह कर दिया. उन दिनों रांची के एक शराब माफिया शिव प्रकाश साहू हुआ करता था, जो आगे चलकर सांसद भी बने। उनके बारे में कहा जाता है कि उन पर जगजीवन राम का हाथ था. विदित हो कि बिहार में सबसे पहले कर्पूरी ठाकुर ने 1977 में बिहार में शराबबंदी कानून लागू कर तहलका मचा दिया था. उसी से खार खाए शिव प्रसाद साहू ने पैसों का इंतजाम कर जनता दल के लोकदल खेमे के 12 दलित विधायकों को तोड़ने में मदद किया।

विधानसभा में कर्पूरी ठाकुर के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया गया जिसमें वे 30 मतों से हार गए.

दलित राम सुंदर दास का नाम सामने रख कर अगड़ों ने पिछड़े कर्पूरी ठाकुर की सरकार गिरा दिया. 21 अप्रैल 1979 को इस्तीफा देना पड़ा, जिसके बाद राम सुंदर दास बिहार के मुख्यमंत्री बनाये गए. सनद रहे कि रामसुंदर दास के मंत्रिमंडल में अगड़ी जातियों के मंत्री 50 फीसदी जबकि ओबीसी 20 फीसदी थे.

प्रतिरोध की जगह समन्वय की राजनीति
आजादी के बाद भी शासन व्यवस्था में पिछड़े, दलितों की स्थिति अत्यंत कम थी. तेलंगाना और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में पिछड़ों और दलितों की तरफ से सत्ता के लिए प्रतिरोध की राजनीति के स्वर दिख रहे थे. लेकिन उसे दबा दिया गया था. ऐसे प्रतिरोध की गुंजाइश कम थी. इस काल में समन्वय की राजनीति ही आदर्श स्थिति थी. एक दूसरा पहलु यह है कि तब बिहार में कर्पूरी ठाकुर की स्थिति 32 दांतों के बीच एक जीभ की तरह थी. चूँकि समाजवादी दलों में भी उस समय सवर्ण नेतृत्व हावी था, पिछड़ी जातियों कि संख्या बल में मजबूत के बीच से नेतृत्व पर आम सहमति नहीं बन पा रही थी, यह कोई नेतृत्व उस कद का नहीं था, जो बिहार की बागडोर संभालने के लायक हो. कर्तव्यनिष्ठता, ईमानदारी, बुद्धि कौशल में कर्पूरी ठाकुर का कोई सानी नहीं था. उनके मेंटर डॉ राम मनोहर लोहिया भी थे, चौधरी चरण सिंह से भी उनकी घनिष्ठता थी, उनके मित्रों में रामानंद तिवारी भी थे, उनके शिष्यों में देवेन्द्र यादव भी थे, जिन्होंने 1977 में उनके लिए फुलपरास का सीट छोड़ दिया था. लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार को भी उनका सानिध्य प्राप्त था. कर्पूरी ठाकुर की स्थिति एक समन्वयवादी नेता के रुप में थी, जो अपनी सीमित शक्ति के बावजूद एक बड़ी लकीर खींचने के लिए भारतीय राजनीति में याद किए जाते है.

अवसान के दिन
हालाँकि अपने तेजस्वी व्यक्तिव के बावजूद वे अपने अंतिम दिनों में वे व्यक्तिगत और राजनीतिक दोनों स्तर पर साजिश का शिकार हो गये. बिहार के राजनीतिक क्षितिज पर लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान का उदय हो चुका था. पिछड़ी जातियों और दलितों के बीच से इन नेताओं के उभार की वजह से कम जनसंख्या वाली जाति से आने वाले कर्पूरी ठाकुर का तेज धुंधला पड़ रहा था.

“1980 के चुनाव में पराजय के बाद गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा विपक्ष लोक दल, लोक दल (च) और जनता पार्टी में बिखरा रहा. इसी बिखराव के दौर में पिछड़ों के नेता कर्पूरी ठाकुर 1984 का लोकसभा चुनाव हार चुके थे. 1988 में मृत्यु के पहले विधान सभा अध्यक्ष शिव चन्द्र झा द्वारा विधान सभा में विरोधी दल के नेता पड़ से हटाए जाने के नाजायज तरीके से उन्हें गहरा सदमा लगा था. शिवचंद्र झा की इस कार्रवाई के लिए भूमिका तैयार की थी एक यादव विधायक श्रीनारायण यादव ने. जीवन के अंतिम दिनों में श्री ठाकुर को पार्टी के अन्दर के महत्वकांक्षी यादव विधायकों से त्रस्त रहना पड़ता था. वह उन्हें नियंत्रण में रखना चाहते थे. इन्हीं कारणों से अनेक यादव नेता कर्पूरी ठाकुर को छोड़ कर लोकदल (च) में चले गए थे. उनमे से एक लालू प्रसाद यादव भी थे.(बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम)”

दरअसल कर्पूरी ठाकुर के लोकदल के विधायकों की संख्या में आधे यादव थे. उन्होंने कर्पूरी ठाकुर को चुनौती देते हुए अनूप लाल यादव को अपना नेता माना. चूँकि देवी लाल और शरद यादव ने ही अनूप लाल यादव को विरोधी दल के भी लालू प्रसाद यादव के द्वारा पदच्युत कर दिया गया.(बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम).

अर्थात, तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितयों के कारण कर्पूरी ठाकुर का समर्थन कमजोर पड़ रहा था. विपक्ष में होने के बावजूद उनकी राजनीति अवसान की ओर थी. 1984 के लोक सभा चुनाव में समस्तीपुर से वे चुनाव हार चुके थे. 1987 में लोक दल में दो गुट बन चुके थे, एक लोक दल (कर्पूरी) दूसरा लोक दल (चरण सिंह) का था. विरोधी दल के नेता के पद से कर्पूरी ठाकुर को हटा कर अनूप लाल यादव को बनाया गया. कर्पूरी ठाकुर के लिए यह झटके से कम नहीं था.

ऐसा कहा जाता है कि उनके स्वास्थ को लेकर परेशानियों का लाभ उठा कर किसी ने किसी अघोरी वैद को उनके उच्च रक्तचाप का इलाज करने के लिए लगा दिया. जिसने उन्हें जानबूझ कर ऐसी घरेलु उपचार करने की सलाह दी, जिससे कि उनका स्वास्थ्य सुधरने की जगह बिगड़ता चला गया. एक मनहूस दिन 17 फरवरी 1988 को उनके जीवन की गति हार्ट अटैक के कारण रुक गई. अब उनकी स्मृतियाँ ही शेष है.

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दुर्गेश कुमार, सामाजिक व राजनीतिक चिंतक
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