विश्वनाथ प्रताप सिंह– एक कवि, कलाकार और राजनेता
अरविंद कुमार सिंह, नई दिल्ली
आज पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह का जन्म दिन है। आज ही के दिन 1931 में इलाहाबाद में उनका जन्म हुआ था। उनका लंबा राजनीतिक जीवन रहा औऱ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री पद तक वे पहुंचे। उनके समर्थक भी हैं और विरोधी भी। लेकिन कोई विरोधी भी उनको बेईमान कहने का साहस नहीं कर पाया। उनकी राजनीति पर बहुत सी चर्चाएं होती ही रहती हैं। इस नाते आज मैं उस पर एकदम चर्चा नहीं करूंगा। उनके कवि और कलाकार रूप पर चर्चा करूंगा। क्योंकि मैं भी उन लोगों में हूं जिसका लंबे समय तक उनके साथ जुड़ाव बना रहा था। अगर वे राजनीति में न होते तो इस रूप में कुछ ज्यादा ताकत के साथ दिखते।
5 मार्च 1995 को शाम को मेरे दफ्तर में फोन आया कि अगले रोज सायंकाल वीपी सिंह के घर पर मैं आमंत्रित हूं। मुझे लगा शायद कोई राजनीतिक प्रयोजन होगा, कुछ पत्रकार आमंत्रित थे। नरसिंह राव की सरकार के हलचल भरे दिन थे वे। लेकिन कोठी पर पहुंचा तो देखा कई लेखक और कवि वहां नजर आ रहे हैं। कमरे में नीचे दरी बिछी थी और गिने चुने श्रोताओं के बीच कुछ ही देर में वीपी सिंह का एकल काव्य पाठ आरंभ हो गया। एक दो नहीं पूरे तीन घंटे कविताएं चलती रही। फरमाइश होती रही औक एक दो तीन चार नहीं नहीं दस कविताएं सुनायीं और आखिर में यह कहते समाप्त किया कि लगता है पूरी किताब ही पढा देंगे आप लोग। राधाकृष्ण प्रकाशन ने उनका एक कविता संग्रह ‘एक टुकड़ा धरती- एक टुकड़ा आसमान’ छापा था लेकिन तब तक उसका विमोचन नहीं हुआ था। वे यूं तो कविताएं काफी दिनों से लिख रहे थे लेकिन भनक कम ही लोगों को लगी थी। संकलन छपा भी तो बहुत बाद में। कविताओं के नीचे तारीखें भी नहीं लिखीं ताकि इसकी राजनीतिक व्याख्या न हो सके कि वो किस मनोदशा के बीच रची गयीं।
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लेकिन राजनीतिक घटनाओं को करीब से देखने वालों के लिए यह कविताओं का मर्म समझ लेना कठिन नहीं था। वीपी सिंह कहते थे कि कविताएं छांटना टेढ़ा काम है। अपनी लिखी कविता हो या फिर पेंटिंग वे अपने बच्चे की तरह होती हैं और सब अच्छी लगती हैं। खुद उनको चयनित करना कठिन काम है। फिर भी अपनी मरजी से एक कविता सुनाते हैं। कुछ पंक्तियां देखिए-
‘ मुफलिस से
अब चोर बन रहा हूं
पर उस भरे बाजार से चुराऊं क्या
यहां वही चीजें सजी हैं
जिन्हें लुटा कर मैं मुफलिस हुआ हूं।‘
अगली कविता में बाजारवाद के खिलाफ आक्रोश है। हालांकि यह उस समय लिखी गयी जब उनको केंद्रीय वित्त मंत्री का पद छोड़ने को विवश होना पड़ा था।
‘ तुम मुझे क्याो खरीदोगे
मैं तो मुफ्त हूं। ‘
उनकी कविताएं ताकतवर हैं। कांग्रेस पार्टी को छोड़ने के दौरान एक कविता लिखी गयी थी
‘ उसने उसकी गली नही छोड़ी
अब भी वहीं चिपका है
फटे इश्तहार की तरह
अच्छा हुआ मैं पहले निकल आया
नहीं तो मेरा भी वही हाल होता। ‘
विश्वनाथ प्रताप सिंह की कविताओं में बहुत सी राजनीतिक परिस्थितियों का विवरण साफ दिखता है। उनकी बहुत सी कविताएं राजनीतिक धरातल के साथ जमीनी हकीकत और समझौतों को दिखाती हैं..
‘तुम्हारी ही मर्जी का हुक्म दूंगा
ताकि मेरी हुकूमत चलती रहे।‘
संसदीय राजनीति से खुद को अलग करने के बाद भी वे निष्क्रिय हो गए ऐसा नहीं था। उन्होंने काफी कुछ लिखा पढ़ा। पेंटिग्स बनायी। उनकी कई कला प्रदर्शनियां लगी और सराहा भी गया। लेकिन मुझे निजी तौर पर उनकी एक कविता की ये पंक्तियां बहुत पसंद आती रही है
‘ कौन नहीं करता है
व्हाइट से ब्लैक
कुछ करते हैं हिसाब से
कुछ करते हैं खिजाब से। ‘
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विश्वनाथ प्रताप सिंह से मेरा परिचय 1983 में हुआ। तब मैं इलाहाबाद में जनसत्ता का संवाददाता था और मुलाकात का माध्यम के.पी. तिवारी जी थे, जो उस समय इलाहाबाद के सांसद थे। उनकी ही सीट से आगे अमिताभ बच्चन सांसद बने। वीपी सिंह की राजनीति पर लाल बहादुर शास्त्री और हेमवती नंदन बहुगुणा की छाप थी। राजनीति के आरंभ में इन दोनों नेताओं के वे स्नेहपात्र रहे। इंदिरा गांधी के भी वे काफी प्रिय रहे। उनकी राजनीति का सफर इलाहाबाद के जमुनापार के कंकरीले पथरीले रास्तों से शुरू हुआ। और पहली लड़ाई घर से ही लड़नी पड़ी। आचार्य विनोबा भावे के भूदान यज्ञ में वीपी सिंह ने यमुनापार तथा फूलपुर की अपनी खेती की 30 हजार बीघा जमीन दान कर दी। परिवार में खलबली मची। विनोबाजी ने भी कहा कि हम तो छठा हिस्सा लेते हैं, तुम बाकी का वापस ले लो। लेकिन वे नहीं माने और कहा कि दी हुई जमीन हम वापस नहीं लेगे। भूदान आंदोलन में वे कई राजे रजवाड़ों के लिए प्रेरणा स्त्रोत बने।
वीपी सिंह डइया के राजा भगवती प्रसाद सिंह के यहां जन्मे लेकिन 11 मार्च 1936 को राजा मांडा ने उनको गोद लिया। 1941 में जब वीपी सिंह महज 10 साल के थे तो राजा मांडा का निधन हो गया और मांडा की जागीर एक ट्स्ट के हवाले हो गयी। उनकी उच्च शिक्षा बनारस, इलाहाबाद और पुणे में हुई। छात्र जीवन में वे बनारस के उदय प्रताप सिंह कालेज छात्र संघ के अध्यक्ष और इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ के उपाध्यक्ष भी रहे। वे राजसी शान के बीच पले और राजा कहे गए लेकिन हकीकत में वे बालिग होते हुए उसके पहले ही जमींदारी समाप्त हो चुकी थी। पढ़ाई पूरी कर गांव लौटे तो इलाहाबाद के कोरांव इलाके में पिता के नाम पर स्कूल खोला और उसकी ईंटें तक ढोयीं। काफी दिनों तक बच्चों को पढ़ाया भी। विनोबाजी ने इसका शिलान्यास किया था। धीरे-धीरे इलाके में पांच कालेज उनके प्रयासों से खुले। बाद में उनकी राजनीतिक यात्रा आरंभ हुई जिसका समापन 77 साल की आयु में 2008 में हुआ।
(वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह के बेहद करीबी रहे हैं। वर्तमान में राज्यसभा चैनल में कार्यरत हैं।)