बलिराम सिंह, 9 मार्च
स्वराज के संस्थापक एवं आधुनिक नौसेना की नींव रखने वाले मराठा साम्राज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी महाराज Chhatrapati Shivaji Maharaj के जीवन में एक ऐसा भी मोड़ आया था, जब वह सबकुछ त्याग कर भक्ति में लीन हो जाना चाहते थे। लेकिन एक संत के मार्गदर्शन से प्रेरित होकर छत्रपति ने पुन: राष्ट्र सेवा का मार्ग अपनाया। वह महान संत थे संत तुकाराम। संत तुकाराम Sant Tukaram ने शिवाजी महाराज से कहा था- आप जो कर रहे हैं वही आवश्यक है। छत्रपति शिवाजी महाराज के प्रेरणास्रोत थे संत तुकाराम।

सन 1636 में जब छत्रपति शिवाजी महाराज मुगल सेना से बचने के लिए सुरक्षित स्थान ढूंढ रहे थे। उस समय रास्ते में लोहगांव में संत तुकाराम का कीर्तन चल रहा था। कीर्तन में हजारों लोग शामिल थे। शिवाजी महाराज भी मुगल सेना से बचने के लिए कीर्तन में शामिल हो गए।
ऐसी परिस्थिति में संत तुकाराम ने ईश्वर को पुकारते हुए कहते हैं-
हे ईश्वर! बचाओ-बचाओ, एक क्षण की भी देरी मत करो।
बाद में मुगल सेना ने लोहगांव छोड़कर चली गई।
संत तुकाराम ने कहा था- हे विट्ठल! मैं अपनी मृत्यु से भयभीत नहीं हूं, लेकिन दूसरों के ऊपर जो आक्रमण हो रहे हैं, यह अत्याचार मुझसे देखा नहीं जाता।
लोहगांव पर आक्रमण को लेकर तुकाराम महाराज ने तीन अभंग लिखे थे। कहा जाता है कि एक बार शिवाजी महाराज ने तुकाराम के पास बहुत सारा सोना, चांदी आदि भेंट में भिजवाया, लेकिन तुकाराम ने श्रद्धापूर्वक सबकुछ वापस कर दिया। और लिखा-
मैं तो वैसे ही सुखी हूं। आप मुख से विट्ठल-विट्ठल कहें उसी से मेरे को सुख मिलेगा।
कहा जाता है कि संत तुकाराम से प्रभावित होकर शिवाजी ने अपना सब कुछ छोड़कर भक्ति भाव से तुकाराम के साथ रहना चाहते थे। उनका शिष्य बनना चाहते थे। लेकिन तुकाराम ने शिवाजी को समझाते हुए कहा कि आप जो कर रहे हैं, वहीं आवश्यक है। परामर्श के लिए समर्थ गुरु रामदास से मिलने को कहा। समर्थ गुरु रामदास ने शिवाजी का योग्य मार्गदर्शन किया।
संत तुकाराम को वारकरी सम्प्रदाय में संतशिरोमणि कहा जाता है।