वंचितों के जीवन स्तर को बेहतर करने पर फोकस हैं नीतीश कुमार
परिवारवाद और जाति विशेष से बाहर नहीं निकले अखिलेश यादव
लखनऊ, 26 मई
मंडल कमीशन लागू हुए तीन दशक पूरे होने जा रहे हैं। इसके लागू होने के बाद देश में पिछड़ी जातियों के सामाजिक-आर्थिक जीवन में क्रांतिकारी बदलाव हुआ। हालांकि यह बदलाव कितना हुआ, यह अध्ययन का विषय है। तीन दशक पहले मंडल कमीशन को जमीन पर लाने के लिए हिन्दी पट्टी में जिन नेताओं ने संघर्ष किया, आज वो नेता अपने पराभव की ओर हैं। आज इनमें से अधिकांश नेताओं ने अपनी पार्टी की कमान अपने पुत्रों को सौंप दी है। बिहार के मुख्यमंत्री एवं जेडीयू के मुखिया नीतीश कुमार इस पीढ़ी के एकमात्र ऐसे नेता हैं, जिन्होंने अपने परिवार को राजनीति से दूर रखा है।
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अब सवाल यह है कि आखिर आप सामाजिक न्याय की लड़ाई के लिए किस नेता के साथ चलना पसंद करेंगे ! सवाल यह भी है कि आप नीतीश कुमार के नेतृत्व में जेडीयू के बैनर तले इस सामाजिक न्याय की लड़ाई को जारी रखेंगे या मुलायम सिंह यादव के पुत्र अखिलेश यादव और लालू यादव के पुत्र तेजेस्वी यादव के नेतृत्व में इस लड़ाई को जारी रखेंगे। यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि फिलहाल राजनीति में अखिलेश यादव- तेजस्वी यादव और नीतीश कुमार दोनों विपरीत धुरी हैं। आप को इनमें से किसी एक धुरी के साथ चलना होगा, दोनों धुरी के साथ आप नहीं चल सकते हैं। ज्ञात हो कि अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव अब रिश्तेदार हो गए हैं और स्वजातीय होने के साथ-साथ मुस्लिम-यादव की राजनीति पर विशेष जोर देते हैं।
नीतीश कुमार:
2019 लोकसभा चुनाव में टिकट वितरण पर नजर डालें तो ज्ञात होता है कि नीतीश कुमार ने बिहार में 17 सीटों में से तीन सवर्ण, 6 पिछड़ा, 6 अति पिछड़ा और 2 अनुसूचित जाति के लोगों को टिकट दिया था, इनमें से 16 उम्मीदवारों ने जीत हासिल की है। नीतीश कुमार ने अपनी जाति के एकमात्र उम्मीदवार कौशलेंद्र कुमार को नालंदा से टिकट दिया। इसी तरह इन्होंने 2009 के लोकसभा चुनाव में भी एक भी ब्राह्मण को टिकट नहीं दिया था,जो कि काफी चर्चा का विषय बना था।
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नीतीश कुमार ने महिलाओं की आर्थिक समृद्धि के लिए न केवल उन्हें पंचायत चुनाव में 50 परसेंट आरक्षण की व्यवस्था की, बल्कि इसमें भी पिछड़ा वर्ग की महिलाओं को विशेष तवज्जो दी गई। आपने सरकारी नौकरियों में आरक्षण की वकालत के अलावा न्यायिक सेवाओं में आरक्षण की सिफारिश की, जो कि फिलहाल उच्च न्यायालय में लंबित है। आपने सरकारी सेवाओं के अलावा निजी क्षेत्र में भी आरक्षण की वकालत की है। आप किसी भी मीटिंग में बिहार के महादलित और अति पिछड़ी जातियों के उत्थान पर विशेष जोर देते हैं।
अखिलेश यादव:
अखिलेश यादव के कामकाज पर नजर डालने से पहले उनके पिता मुलायम सिंह यादव के शासनकाल पर भी नजर डालनी चाहिए। मुलायम सिंह यादव के शासन काल में ठाकुर अमर सिंह की एंट्री के साथ ही बेनी प्रसाद वर्मा जैसे कद्दावर पिछड़ा वर्ग के इस नेता को साइड कर दिया गया। सरकारी नौकरियों और ठेकेदारी में स्वजातियों को विशेष तरजीह दी गई। विधानसभा और लोकसभा चुनाव के अलावा एमएलसी और जिला पंचायत अध्यक्ष के पदों पर भी मुलायम सिंह यादव ने अपने स्वजातियों और रिश्तेदारों को विशेष तरजीह दी।
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2012 में सत्ता में आने पर अखिलेश यादव की टीम में यादव, ठाकुर और मुस्लिम जनप्रतिनिधियों को सर्वाधिक जगह दी गई। मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव के इस कदम से नॉन यादव ओबीसी ने खुद को ठगा महसूस किया, जिसका लाभ 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने उठाया। भाजपा ने पिछड़ी जाति विशेषकर पूर्वांचल के कुर्मी समुदाय में अपनी पैठ रखने वाली अपना दल से गठबंधन किया। भाजपा को उत्तर प्रदेश में 80 में से 73 सीटें हासिल हुईं। इस बड़ी जीत के बावजूद अखिलेश यादव ने कोई सीख नहीं ली और पुराने ढर्रे पर ही सरकार चलाते रहे, इसका खामियाजा उन्हें 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में झेलना पड़ा। 2017 में भाजपा ने अपना दल (एस) और सुहलदेव भारतीय समाज पार्टी से गठबंधन किया। इन दोनों पाटियों की पिछड़ी वर्ग की दो जातियों में विशेष पैठ है। इस चुनाव में भाजपा को बम्पर जीत हासिल हुई।
हालांकि भाजपा के सत्ता में आने के बावजूद पिछड़ों को कोई खास लाभ नहीं मिला। उधर, अपनी जमीन बचाने के लिए सपा और बसपा ने आरएलडी के साथ मिलकर उत्तर प्रदेश में गठबंधन किया। लेकिन यहां भी टिकट वितरण में इन दोनों दलों ने न केवल सवर्णों को विशेष तरजीह दी, बल्कि एक दर्जन के करीब यादव उम्मीदवारों को भी मैदान में उतारा गया। कई जगह पर इन्होंने दागी, बलात्कारी, बाहुबली छवि वाले नेताओं को टिकट दिया, जिसकी वजह से जनता इनसे बिदक गई ,परिणामस्वरूप पिछड़ा वर्ग ने सपा-बसपा की बजाय भाजपा के साथ चलना उचित समझा। इससे यह प्रतीत होता है कि आज भी उत्तर प्रदेश की आम जनता ने सपा- बसपा की गलतियों को माफ नहीं की है।
तेजस्वी यादव:
हिन्दी पट्टी विशेषकर बिहार में आज भी लालू यादव जैसा करिश्माई नेता कोई नहीं है। वास्तव में देखा जाय तो लालू यादव ने बिहार में गरीबों, वंचितों को आवाज दी, उन्हें उनके अधिकार का एहसास कराया। यहां ध्यान देना होगा कि शुरूआती दिनों में नीतीश कुमार 6 साल (1995 तक) लालू यादव के साथ थें। लेकिन यहां भी एक जाति विशेष को ज्यादा तरजीह देने की वजह से नीतीश कुमार ने लालू यादव का साथ छोड़ दिया।
लालू यादव और उनकी पत्नी राबड़ी देवी ने बिहार में 15 साल तक शासन किया। लालू यादव ने गरीबों, वंचितों को उनके हक- अधिकार से बोध तो कराया, लेकिन इसके आगे इन गरीबों के जीवन स्तर को बेहतर करने में असफल साबित हुए।
दूसरी ओर, नीतीश कुमार ने बिहार की बहुसंख्यक वर्ग के जीवन स्तर को बेहतर करने पर फोकस किया। सत्ता में आने के बाद उन्होंने बिहार में विकास को लक्ष्य बनाया। बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने के लिए उन्होंने 2014 से पहले काफी संघर्ष किया। नीतीश कुमार के इस विजन को बिहार की गरीब, वंचित जनता (अति पिछड़े, महादलित) ने स्वीकार किया और यही वर्ग नीतीश कुमार की ताकत है।
लालू यादव के जेल जाने के बाद उनके छोटे पुत्र तेजस्वी यादव ने पिता की विरासत को आगे बढ़ाया। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि तेजस्वी को अभी काफी संघर्ष करना होगा, जनता की समस्याओं को उन्हें समझना होगा और उसके लिए उन्हें एयर कंडिशन से बाहर निकलकर सड़क पर संघर्ष शुरू करना होगा।