राजेश पटेल
मुलायम सिंह यादव, शरद यादव और रामविलास पासवान का निधन हो चुका है। लालू प्रसाद यादव बीमारी के कारण सक्रिय राजनीति से अलग हो चुके हैं। नीतीश कुमार जी की भी अपनी विवशता है। 72 साल के हो चुके हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि राष्ट्रीय फलक पर भविष्य में सामाजिक न्याय के लिए आवाज कौन बुलंद करेगा। इसका झंडाबरदार कौन बनेगा। जेपी आंदोलन की उपज इन चारो नेताओं ने सत्ता के लिए चाहे जो कुछ भी किया हो, लेकिन सामाजिक न्याय की बात हमेशा करते रहे। इसके प्रति प्रतिबद्धता से कभी पीछे नहीं हटे। अब सामाजिक न्याय के आंदोलन को एक ऐसे नेता की जरूरत है, जो पिछड़े वर्ग का हो, अच्छा वक्ता हो। उसकी उम्र ऐसी हो कि वह आने वाले 25-30 साल तक सक्रिय राजनीति में बना रहे।
मुलायम सिंह यादव, शरद यादव, लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान में तुलना करें तो इनमें मंडल पुरोधा का विशेषण सिर्फ शरद यादव को मिला। मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करवाने के लिए शरद यादव ने तत्कालीन प्रधानमंत्री बीपी सिंह पर काफी दबाव बनाया था। जनता दल की सरकार बनने के कुछ ही दिन बाद प्रधानमंत्री वीपी सिंह और उप प्रधानमंत्री चौधरी देवीलाल के बीच मनमुटाव शुरू हो गया। यह इस हद तक पहुंचा कि देवीलाल को सरकार से अलग होना पड़ा। और सरकार गिराने की साजिश में जुट गए। इसके बाद देवीलाल ने अपने शक्तिप्रदर्शन के लिए एक रैली आयोजित की, जिसमें जनता दल के अपने समर्थक नेताओं को बुलाना चाहते थे।
देवीलाल की इच्छा थी कि शरद यादव भी इस रैली में आएं। बस इसी का फायदा उठाकर शरद यादव ने वीपी सिंह से कह दिया कि मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू कर सरकारी नौकरियों में पिछड़ों को 27 फीसद आरक्षण दें, नहीं तो वे देवीलाल के साथ चले जाएंगे। इस पर वीपी सिंह के जीवन पर लिखी किताब ‘THE DISRUPTOR: How Vishwanath Pratap Singh Shook India’ में विस्तार से जिक्र है। खैर दबाव में ही सही, वीपी सिंह मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कर मंडल मसीहा कहे जाने के हकदार बन गए। और इसके लिए दबाव बनाने वाले शरद जी मंडल पुरोधा। अब न वीपी सिंह हैं, और न ही शरद यादव।
मुलायम सिंह यादव सिंह जी भी यदि चाहते तो पिछड़ों के नेता बन सकते थे। लड़ाके थे, लेकिन उनके समाजवाद का मतलब कुछ और था। वह सिर्फ एक जाति के नेता बनकर रह गए। उन्हीं के नक्श-ए-कदम पर उनके सुपुत्र अखिलेश यादव भी चल रहे हैं। 2012 से ही उनको सक्रिय राजनीति में देखा जा रहा है। 2012 से 2017 तक अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रहे। अभी तक की इनकी राजनीति में ऐसा कुछ भी नहीं दिखा, जिससे कहा जा सके कि वे भविष्य में सामाजिक न्याय का झंडा बुलंद करने लायक हैं। रामविलास पासवान तो रहे नहीं, उनके बेटे चिराग से भी रौशनी की गुंजाइश बिल्कुल नहीं है।
सामाजिक न्याय का झंडा उठाने लायक नीतीश कुमार जरूर हैं। तमाम विरोधों को दरकिनार कर बिहार में जातीय गणना शुरू करा कर उन्होंने फिर साबित किया है कि वह वंचित तबके के लोगों के साथ अन्याय नहीं होने देंगे। लेकिन, उनकी उम्र इसकी इजाजत नहीं दे रही है। ज्यादा संभावना है कि 2024 के संसदीय चुनाव के बाद वे राजनीति से संन्यास ले लें। 72 साल के हो चुके हैं। 2029 के चुनाव के समय वे 77 साल को हो जाएंगे। उन्होंने कोई बिरवा भी नहीं डाला है, जो आगे चलकर बड़ा बने और अपनी छाया में सामाजिक न्याय के सिपाहियों को एक जोड़कर मंडल विरोधियों को टक्कर दे सके।
एक बात और गौर करने वाली है- हिंदी पट्टी का ही कोई नेता ऐसा कर सकता है। क्योंकि उत्तर प्रदेश की 80, बिहार की 40, मध्य प्रदेश की 29, छत्तीसगढ़ की 11, झारखंड की 14, हरियाणा की दस लोकसभा सीटों पर जिसका दबदबा होगा, देश में राज वही करेगा। इन प्रदेशों को हिंदी पट्टी का ही नेता सामाजिक न्याय की अवधारणा को सरल भाषा में समझा सकता है। कहा गया है न कि सीखने के लिए अपनी भाषा और सिखाने के लिए सीखने वाले की भाषा ज्यादा उपयुक्त होती है।
रात चाहे कितनी भी अंधेरी हो, लेकिन सुबह होती ही है। अंधेरे की भी अपनी रौशनी होती है। इसको दूसरी भाषा में भी समझा जा सकता है। अंधेरा नहीं होगा तो रौशनी का आभास कैसे होगा।
बिहार के तेजस्वी यादव में भविष्य का ओबीसी लीडर दिख रहा है। पिता लालू यादव के जेल जाने के बावजूद 2015 से तेजस्वी यादव लगातार संघर्ष कर रहे हैं और मात्र 30 साल की उम्र में पिछले विधानसभा चुनाव में उन्होंने खुद को साबित भी किया। बिहार में उपमुख्यमंत्री के तौर पर दूसरी बार उन्होंने जिम्मेदारी संभाली है। जातीय जनगणना के मुद्दे पर नीतीश सरकार पर उनका दबाव काफी हद तक सफल रहा। सामाजिक न्याय के मुद्दों और युवाओं के मामले पर तेजस्वी यादव काफी गंभीर दिखते हैं। फिलहाल नीतीश कुमार का पूरा आशीर्वाद उनको है। उनको सही गाइडेंस की जरूरत है। नीतीश कुमार उनको गाइड कर रहे हैं। यह अच्छी बात है।
उत्तर प्रदेश से लेकर केंद्र की राजनीति में तेजी से उभरतीं नेता अनुप्रिया पटेल उम्मीद की किरण हैं। संसद में व संसद के बाहर ओबीसी व एससी-एसटी के मुद्दों को लेकर मुखर रहती हैं। अभी उनकी उम्र 40 के आसपास है। मतलब वे अभी 30 साल तक फिट रहकर ओबीसी का नेतृत्व कर सकती हैं। पढ़ी-लिखी हैं। अच्छी वक्ता हैं। बिल्कुल शरद यादव की तर्ज पर वह अपनी ताकत का अहसास समय-समय पर एनडीए सरकार को कराती रहती हैं। जैसे शरद यादव ने वीपी सिंह से मंडल आयोग की रिपोर्ट को दबाव बना कर लागू करा दिया, वैसे ही अनुप्रिया पटेल भी सरकार पर दबाव बनाकर पिछड़ों के हित में काम करा ही लेती हैं। थोड़ा समय जरूर लगता है, क्योंकि लोकसभा में अभी इनकी पार्टी का संख्या बल 1984 वाली बीजेपी बराबर ही है। वर्ष 1984 के आमचुनाव में बीजेपी को लोकसभा की सिर्फ दो सीटों पर विजय मिली थी। एक गुजरात से तथा दूसरी आंध्रप्रदेश की। 30 साल बाद 2014 के चुनाव में उसी बीजेपी को 282 सीटें मिलीं। विश्वविद्यालयों में सहायक प्रोफेसर की भर्ती में 13 प्वाइंट रोस्टर प्रणाली को खत्म कराने के लिए एनडीए की बैठक में मजबूती से पक्ष रखा। नवोदय व सैनिक विद्यालयों में भी ओबीसी बच्चों के प्रवेश के लिए 27 फीसद आरक्षण की पैरवी की। स्वतंत्रता सेनानी राजा जय़लाल सिंह और गया प्रसाद कटियार की स्मृतियों को बनाए रखने के लिए डाक टिकट जारी करवाया। मेडिकल प्रवेश परीक्षा नीट में आरक्षण के लिए आवाज उठाई। इसी तरह से जहां भी उनको लगता है कि पिछड़ों की अनदेखी हो रही है, आवाज जरूर उठाती हैं। ज्यादातर मुद्दों को दबाव बनाकर हल भी करा देती हैं। क्योंकि बीजेपी को भी पता है कि अनुप्रिया साथ हैं तो क्या स्थिति है। न रहेंगी तब क्या स्थिति होगी।
अभी पिछड़ा समुदाय दलों के दलदल में फंसा हुआ है। उसे समझ में नहीं आ रहा है कि मंडल कमीशन के लागू होने से उनको जो मिला है, वह कब तक कायम रहेगा। इसे खत्म करने की साजिशें तो अहर्निश जारी हैं। ऐसे में अनुप्रिया पटेल को भी मनसा, वाचा और कर्मणा यह जताना होगा कि सामाजिक न्याय की राजनीति में आने वाली रिक्तता को वे भर सकने में सक्षम हैं। ओबीसी के साथ वंचित तबके के मतदाताओं को भी जातीय पार्टियों के दायरे से बाहर आना होगा, नहीं तो आरक्षण ही नहीं, इनके इतिहास का भी खतरे में पड़ना तय है। अनुप्रिया की पार्टी को भी लोग जातीय करार दे ही देते हैं। लेकिन उनकी पार्टी तेजी से इस मिथक को तोड़ने में जुटी है। इस पार्टी में दो सांसद हैं। एक स्वयं अनुप्रिया, दूसरे जनजातीय समुदाय के पकौड़ीलाल कोल। इसी तरह से 12 विधायकों में कुर्मी जाति के सिर्फ पांच हैं। अनुसूचित जाति के पांच, एक सोनार व एक ब्राह्मण। यही कारण है कि इस पार्टी का तेजी से विस्तार हो रहा है। पिछले विधानसभा चुनाव में इस पार्टी को राज्य स्तरीय का दर्जा चुनाव आयोग से मिल चुका है। इस पार्टी में ओबीसी का नेतृत्व करने की क्षमता है, लेकिन गठबंधन में अपने बड़े भाई की तरह धैर्य रखना पड़ेगा। अर्जुन की तरह निशाना लक्ष्य पर ही होना चाहिए।
(लेखक सामाजिक चिंतक हैं व दैनिक जागरण के पूूर्व मुख्य उपसंपादक रह चुके हैं)