बलिराम सिंह, यूपी80 न्यूज
भारतीय समाज में जाति एक अभिशाप है। ‘जाति’ जहां कुछ लोगों के लिए गर्व का बोध कराती है तो वहीं कुछ लोगों के अंदर हीन भावना भी पैदा करती है। समाज के बहुत सारे मेधावी छात्र-छात्राएं इस जाति की वजह से हीन भावना से ग्रसित हो जाते हैं और कई बार इसकी वजह से अपने सुनहरे भविष्य से वंचित हो जाते हैं। ऐसे छात्र-छात्राओं के लिए राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जी की ‘रश्मिरथी’ महाकाव्य की इन पंक्तियों को जरूर पढ़ना चाहिए। ये पंक्तियां समाज के निचले तबके को भी गर्व का बोध कराती हैं और उन्हें बेबाकी से चौक-चौराहे पर अपनी बात कहने की ऊर्जा देती हैं।
पेश है रश्मिरथी महाकाव्य की पंक्तियां:
‘जय हो’ जग में जले जहां भी, नमन पुनीत अनल को,
जिस नर में भी बसे, हमारा नमन तेज को, बल को।
किसी वृंत पर खिले विपिन में, पर, नमस्य है फूल,
सुधी खोलते नहीं, गुणों का आदि, शक्ति का मूल।
ऊंच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है,
दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है।
क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग,
सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग।
तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के,
पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के।
हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक,
वीर खींच कर ही रहते हैं इतिहासों में लीक।
जिसके पिता सूर्य थे, माता कुंती सती कुमारी,
उसका पलना हुआ धार पर बहती हुई पिटारी।
सूत-वंश में पला, चखा भी नहीं जननि का क्षीर,
निकला कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्भुत वीर।
तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी,
जाति-गोत्र का नहीं, शील का, पौरुष का अभिमानी।
ज्ञान-ध्यान, शस्त्रास्त्र, शास्त्र का कर सम्यक अभ्यास,
अपने गुण का किया कर्ण ने आप स्वयं सुविकास।
अलग नगर के कोलाहल से, अलग पुरी-पुरजन से,
कठिन साधना में उद्योगी लगा हुआ तन-मन से।
निज समाधि में निरत, सदा निज कर्मठता में चूर,
वन्यकुसुम-सा खिला कर्ण, जग की आंखों से दूर।
नहीं फूलते कुसुम मात्र राजाओं के उपवन में,
अमित बार खिलते वे पुर से दूर कुंज-कानन में।
समझे कौन रहस्य? प्रकृति का बड़ा अनोखा हाल,
गुदड़ी में रखती चुचन-चुन कर बड़े कीमती लाल।
जलद-पटल में छिपा, किंतु रवि कब तक रह सकता है?
युग की अवहेलना शूरमा कब तक सह सकता है?
पाकर समय एक दिन आखिर उठी जवानी जाग,
फूट पड़ी सबके समझ पौरुष की पहली आग।
रंग-भूमि में अर्जुन था जब समां अनोखा बांधे,
बढ़ा भीड़-तीतर से सहसा कर्ण शरासन साधे।
कहता हुआ, ‘तालियों से क्या रहा गर्व में फूल?
अर्जुन! तेरा सुयश अभी क्षण में होता है धूल।‘
‘तूने जो-जो किया, उसे मैं भी दिखला सकता हूं,
चाहे तो कुछ नयी कलाएं भी सिखला सकता हूं।
आंख खोल कर देख, कर्ण के हाथों का व्यापार,
फुले सस्ता सुयश प्राप्त कर, उस नर को धिक्कार।‘
इस प्रकार कह लगा दिखाने कर्ण कलाएं रण की,
सभा स्तब्ध रह गयी, गयी रह आंख टंगी जन-जन की।
मंत्र-मुग्ध सा मौन चतुर्दिक जन का पारावार,
गूंज रही थी मात्र कर्ण की धन्वा की टंकार।