तीन दशक से पिछड़ों के हाथों में बिहार की कुंजी
पटना, 22 फरवरी
उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र के बाद देश का तीसरा सर्वाधिक आबादी वाला राज्य बिहार है। बिहार की बागडोर पिछले तीन दशक से अन्य पिछड़ी जाति के नेताओं के हाथ में है। यहां पर सवर्ण नेता दूसरे पायदान पर चले गए हैं। बदलती राजनीतिक परिस्थितियों में बिहार की सत्ता पर एक बार फिर से काबिज करने के लिए बड़े पैमाने पर रणनीति बनायी जा रही है और इसी रणनीति का हिस्सा हैं कन्हैया कुमार और प्रशांत किशोर। अब यह वक्त बताएगा कि ये दोनों नेता आने वाले समय में कितना असर दिखाते हैं अथवा बिहार की सत्ता की कुंजी पिछड़ों के हाथों में ही रहेगी।
भारतीय लोकतंत्र के प्रशासन को चलाने वाले सर्वाधिक नौकरशाह बिहार से आते हैं। इसी तरह देश की आर्थिक आबादी को मजबूती प्रदान करने वाले सर्वाधिक मजदूर भी बिहार के ही हैं, जो आज दिल्ली-मुंबई से लेकर देश के विभिन्न हिस्सों में कार्य कर रहे हैं। सामंतवाद के तौर पर बदनाम इस राज्य की एक बदनीयती प्राकृतिक आपदा भी है। हर साल आने वाली बाढ़ की त्रासदी झेलने को यह राज्य मजबूर है। राज्य में रोजगार का अभाव और जनसंख्या का दबाव भी इस राज्य के लिए एक संकट है। देश के पिछड़ों की लड़ाई को मजबूती से लड़ने वाले बिहार की कमान तीन दशक पहले यहां के पिछड़े नेताओं के हाथों में आ गई। कभी गुदड़ी के लाल के नाम से मशहूर लालू प्रसाद यादव एवं उनके परिवार ने बिहार में डेढ़ दशक तक राज किया। सत्ता में आने पर लालू यादव ने यहां के दबे-कुचले-शोषितों को आवाज दिया। कल तक दबा समाज अपने अधिकारों को लेकर मुखर हुआ। ऐसे में सर्वाधिक व्यंग भी लालू यादव और उनके परिवार पर किए गए। 2005 में लालू यादव के बाद उनके सहयोगी रहे नीतीश कुमार बिहार की सत्ता पर काबिज हुए। नीतीश कुमार भी पिछड़ी जाति (कुर्मी) से आते हैं। नीतीश कुमार के नेतृत्व में बिहार के अति पिछड़ों और पसमांदा मुसलमानों के विकास पर विशेष तौर पर योजनाएं बनायी गईं। महिलाओं को मुख्यधारा में लाने के लिए पंचायत में 50 परसेंट सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की गईं। प्रदेश में माइक्रोस्तर पर विकास किया गया।
आज राष्ट्रीय जनता दल के मुखिया लालू यादव का स्वास्थ्य खराब है और वह जेल में है। हालांकि लालू यादव के छोटे बेटे तेजस्वी यादव धीरे-धीरे राजनीति में अपनी पकड़ मजबूत करते जा रहे हैं। लेकिन उनमें लालू यादव की तरह करिश्मा का अभाव है। दूसरी ओर नीतीश कुमार भी 67 साल के हो गए हैं। आज उन पर भी उम्र का असर दिख रहा है। आज उनकी पार्टी में भी सवाल है कि नीतीश कुमार के बाद पार्टी की कमान किसके हाथों में!
दूसरी ओर राष्ट्रीय मीडिया में कन्हैया कुमार और प्रशांत किशोर को प्रमुखता से जगह दी जा रही है। ये दोनों युवा नेता बिहार के रहने वाले हैं और सवर्ण समाज से हैं। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष रहे कन्हैया कुमार (भूमिहार) आज एंटी मोदी के तौर पर खुद को स्थापित करते जा रहे हैं। इस वामपंथी नेता को वाकपटु एवं आक्रामक भाषण शैली की वजह से एंटी मोदी गुट काफी पसंद करता है। 2019 के लोकसभा चुनाव में कन्हैया कुमार बेगूसराय से चुनाव भी लड़ चुके हैं। हालांकि इस चुनाव में कन्हैया कुमार ने भूमिहार बहुल सीट से चुनाव लड़ा, लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा।
वहीं कल तक नीतीश कुमार के करीबी रहे प्रशांत किशोर भी तेजी से उभर रहे हैं। चुनाव प्रबंधन के रणनीतिकार प्रशांत किशोर भी खुद को मुसलमानों का हितैषी बताने और एंटी मोदी के तौर पर स्थापित करने में लगे हुए हैं। हालांकि 2014 से पहले प्रशांत किशोर नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रबंधन के लिए कार्य कर चुके हैं। लेकिन अति महात्वाकांक्षी प्रशांत किशोर तेजी से बिहार की सीढ़ी चढ़ना चाहते हैं। चूंकि राष्ट्रीय मीडिया में बिहार के सवर्ण युवाओं की भागीदारी सर्वाधिक है। ऐसे में माना जा रहा है कि एक सोची समझी रणनीति के तहत इन दोनों नेताओं को आगे बढ़ाने की तैयारी चल रही है। अब देखना यह है कि आने वाले समय में ये दोनों नेता बिहार व भारतीय राजनीति में कितना असर डालते हैं अथवा बिहार के सत्ता की कुंजी पिछड़ों व दलित समाज के हाथों में रहेगी!