‘तू जमाना बदल’ के नायक की मौत के साथ ही समाप्त हो गई राजनरायन परंपरा की राजनीति
राजेश पटेल, मिर्जापुर
साहस भी जिससे लेता था साहस। जिससे डरता था डर भी। हार मान जाती थीं पुलिस की लाठियां भी। जेल ही बन गया घर। मात खाई कई बार मौत भी। लालच तो कभी नजदीक भी नहीं फटक सकी। ऐसे थे यदुनाथ सिंह ‘पग्गल’। खुद तो अनंत की सफर पर चले गए, यहां छोड़ गए अपने क्रांतिकारी विचार। युवावस्था से लेकर अधेड़ उम्र तक जनता के हित के लिए संघर्षों की लंबी फेहरिस्त। स्वाभिमान के लिए सत्ता की कुर्सी को ठोकर मारने की सीख। सच्चा समाजवाद का दर्शन, जिसमें मंगरू धोबी खाना बनाएं, बाबूलाल रावत (डोम) परोसें और सर्व समाज के लोग खाएं। इसी कारण वे चुनार से लगातार 1980, 1985, 1989, 1991 में विधायक चुने गए। इन पर कभी जातिवादी होने का ठप्पा नहीं लगा। प्यार से लोग इनको पग्गल भी कहते थे। बनारस के हरफनमौला नेता राजनरायन की परंपरा की राजनीति भी इनकी मौत के साथ ही समाप्त हो गई।
इनको ऐसे ही आजाद भारत का सबसे बड़ा क्रांतिकारी नहीं कहा जाता है। वे क्रांति के पर्याय थे। सामने साक्षात महाकाल भी हों तो वे डरने वाले नहीं थे। जनता के लिए किससे नहीं लड़ाई लड़ी। बनारस के तत्कालीन डीएम भूरेलाल से भिड़ंत हुई। चौधरी चरण सिंह, मुलायम सिंह यादव, तत्कालीन स्वास्थ्य सचिव सुनीता कांडपाल, सिंचाई राज्य मंत्री भोलाशंकर मौर्य, गृह सचिव रहे प्रभात कुमार, चुनार के एसडीएम रहे मुकेश मित्तल सहित तमाम नेताओं व अधिकारियों से भिड़े। कट्टा भी चलाना नहीं जानते थे, लेकिन आत्मबल इतना बड़ा था कि उस समय के बड़े-बड़े माफिया भय खाते थे। आंदोलन के बल पर कई बार ऐसा काम भी करवा लिया, जो लगभग नामुमकिन होते थे। मसलन इनके आंदोलन के कारण पूरे देश में एकमात्र रामनगर के पीपा के पुल का पथकर माफ हो सका। तीन इंटर कॉलेजों की फीस पूरी तरह से माफ करा दी। मल्लाहों से घाट का टैक्स वसूलने के विरोध में ठेकेदार के स्टीमर को ही लेकर पटना चले गए। यदुनाथ सिंह ही एकमात्र ऐसे शख्स थे, जिनका चुनाव हारने पर भी ऐसा स्वागत जनता ने किया, जितना आज तक किसी का जीतने पर भी नहीं किया गया। वे जननेता थे।
‘धरती की लड़ाई देवों की पुष्पवर्षा से नहीं जीती जाती,
चलना पड़ता है अयोध्या से लंका तक राम को भी, गोकुल से द्वारका तक श्याम को भी।’
यदुनाथ सिंह ने इस स्लोगन को अपने दारुलसफा स्थित अपने आवास ए ब्लॉक के कक्ष संख्या 166 के बाहर दीवार पर लिखवाया था। इसी राह पर खुद चलकर बड़ी लकीर खींची। यदुनाथ सिंह जी का जन्म 6 जुलाई 1945 को यूपी के मिर्जापुर जिले के चुनार तहसील के अदलहाट थानांतर्गत नियामतपुर कलॉ गांव में साधारण किसान के घर हुआ था। बचपन में ही शादी हो गई। पढ़ने में कुशाग्र थे। बीएचयू से छात्र राजनीति शुरू की। पहले कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित थे, लेकिन कब समाजवादी बन गए, खुद उनको भी पता नहीं चला। राजतंत्र के घोर विरोधी थे। उन्होंने रामनगर में काशी नरेश के राजसी ठाट-बाट के खिलाफ कई बार आंदोलन किया।
यदुनाथ सिंह अंग्रेजों द्वारा बनाए गए कानून अभी तक लागू रहने के घोर विरोधी थे। इसीलिए वे बार-बार इस कानून को तोड़ते थे। ‘पुलिस मन ठीक करो’ और ‘तू जमाना बदल’ का नारा दिया था। जजों को ‘मी लार्ड’ कहे जाने का विरोध भी उन्होंने अपने अंदाज में किया। हाईकोर्ट की एक बेंच पर ही 1979 में कब्जा कर लिया था। इस मामले में उनको तीन महीने की सजा भी हुई थी। आखिरकार अब ‘मी लार्ड’ के मुद्दे पर उनकी विचारधारा सही साबित हुई। जेल से उन्होंने अपने भ्राता श्री को एक पत्र लिखा था, उसमें ‘जेल में मैं फांसीघर में बेड़ी सहित हूं। 23 दिन से सिर्फ नमक और रोटी पर बिता रहा हूं। जमानत पर छुड़ाने में काफी परेशानी होगी, इस कारण मुझे जेल में ही रहने दीजिए। यदि मैं परिस्थितियों का उपयोग सही ढंग से कर सका तो मैं संतोष प्राप्त करूंगा। ‘ ऐसे थे यदुनाथ सिंह। उनके इतने आंदोलन हैं, उतनी घटनाएं हैं कि लोग कहते नहीं थकते। शायद वे पहले व्यक्ति थे, जो जीवित किंवदंती बन चुके थे। अपने नजदीकी राजेश पटेल को उन्होंने अपने जीवन के संघर्षों को एक स्थान पर पुस्तक के रूप में समेटने की जिम्मेदारी दी थी। इस काम को कर भी लिया गया। 27 मई 2020 को उन्होंने खुद अपने हाथ से इस कवर को लांच किया। सभी को रुलाकर ‘पग्गल’ ने 75 वर्ष की उम्र में 31 मई की शाम अंतिम सांस ली। शायद उनको इसी किताब का इंतजार था।
ऐसे क्रांतिकारी विचारों वाले यदुनाथ सिंह को सच्ची श्रद्धांजलि तभी होगी, जब उनके विचारों पर चलते हुए अन्याय का विरोध करें, गरीब को उसका हक दिलाने के लिए लड़ें, समाज से छुआछूत, दहेज, नशा, ऊंच-नीच जैसी कुरीतियों को भगाएं। राजनीति से भ्रष्टाचार को भगाएं।