डा. अनूप पटेल, लखनऊ
आज सोशिअल नेटवर्क खासकर फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सएप में फूलन देवी से जुड़े पोस्ट्स वायरल रहे. कुछ लोगों ने फूलन देवी को भारतीय नारीत्व का प्रतीक बताया, बलात्कारियों को सबक सिखाने वाली वीरांगना बताया, सवर्ण मानसिकता को उसी की भाषा में जवाब देने वाली हिरोइन बताया, अपने समाज को जागरूक करने वाली समाज सुधारक बताया, बुलेट से लेकर बैलेट तक की सार्थकता को साकार करने वाली बताया.
ऐसे ही आज से तीन दिन पहले ददुआ के बारे में खूब लिखा गया. लोगो ने ददुआ को भारत का असली रॉबिनहुड बताया, गरीबो-मजलूमों का हमदर्द बताया, बीहड़ो में सबसे ज्यादा समय तक राज करने वाला बागी बताया, सामंत जातियों का गुरूर तोड़ने वाला बताया।
जबकि कानून और मुख्य धारा की मीडिया के हिसाब से दोनों कुख्यात अपराधी थे, दोनों ने जातीय-वैमनस्यता को हवा दी और जंगलराज चलाने वाले मुजरिम थे. आखिरकार सोसिअल साइट्स में बहुतायत लोग इन दोनों लोगों को क्यों याद कर रहे है? आखिर ददुआ और फूलन देवी अपराध की दुनिया में क्यों जाते है. इनके मरने पर लाखों लोग आंसू क्यों बहाते है? इसका जिम्मेदार कौन??
आप फूलन देवी को किस रूप में याद करते है? एक दुर्दांत डकैत के रूप में, बलात्कारियों से बदला लेने वाली के रूप में, प्यार- अहसास को ताउम्र तलाशने वाली, भारतीय नारीत्व की भाषा -विचार बदलने वाली आइकॉन के रूप में, पित्रसत्ता और जातिवाद को चूर करने वाली शख्सियत के रूप में, या एक पोलिटिकल लीडर के रूप में! फूलन की जीवनी को इन सारे द्रष्टिकोण से देखा जा सकता है. फूलन अपने समय की सबसे चर्चित हस्ती थी, यानि कि आज के मोदीजी से भी ज्यादा चर्चित।
फूलन की कई जीवनियाँ लिखी गयी हैं, लेकिन सबसे प्रमाणिक जीवनी माला सेन की इण्डिया’ज बैंडिट क्वीन है. माला सेन ने फूलन के कई इंटरव्यू लिये, उनकी निजी जिंदगी के विभिन्न पहलुओं को उजागर किया है अपनी किताब में। फूलन का जन्म 1963 में कानपूर देहात जिला के घुरा के पुरवा में एक मल्लाह परिवार में हुआ था. मल्लाह जाति का पेशा नाव चलाना होता है और और अक्सर ये नदी किनारे अपना घर बनाते है। मल्लाह हिन्दुओं में अति- पिछड़ा वर्ग से ताल्लुकात रखते है।
फूलन देवी का परिवार अत्यंत ही गरीब था. परिवार की जीविका मजदूरी पर आश्रित थी. फूलन शुरू से विद्रोही स्वाभाव की थी. जब वो 11 साल की थी तभी उसने विद्रोही तेवर दिखाए थे. फूलन के चचेरे भाई ने पैत्रक जमीन बेचनी चाही, फूलन अपने भाई से लड़ गयी थी. लड़कियों का विद्रोही स्वभाव का होना परिवार के लिये घातक था.
फूलन के चचेरे भाई फोल्लन की माँ को समझाकर 11 वर्षीय फूलन की शादी 30 वर्षीय पुत्तिलाल से कर दिया. पुत्तीलाल ने फूलन के गौना होने का इंतज़ार भी नहीं किया और जबरदस्ती कई बार बलात्कार किया. फूलन ने पुत्तीलाल का भरसक विरोध किया और अंत में अपने पति को छोड़कर मायके आ गयी और मजदूरी करके अपना गुजर-बसर करने लगी. फूलन का पितृ-सत्ता के खिलाफ पहला प्रतिरोध था।
फूलन मजदूरी से अपनी जिंदगी चला रही थी. एक बार मकान बनवा रहे व्यक्ति ने फूलन को उसकी मजदूरी नहीं दी. फूलन को इतना गुस्सा आया कि उस व्यक्ति का मकान मिटटी के ढेर में बदल दिया. वो व्यक्ति सवर्ण जाति से ताल्लुक रखता था. गाँव के संपन्न लोगों की आँहों में फूलन किरकिरी बनने लगी थी. गाँव के दबंगों ने फूलन के साहस का मर्दन करने के लिये फूलन के माता- पिता के सामने फूलन का रेप किया. फूलन उस समय 15 वर्ष की थी.
फूलन मल्लाह जाति से थी और दबंग जातियों के सामने मल्लाहों की कोई हैसियत न थी उस समय. जबकि भारत आजाद हो चुका था, भारतीय संविधान लागू हो चूका था, लेकिन घुरा के पुरवा में सवर्ण जातियों का ही कानून चलता था.
फूलन को समाज, परिवार से घ्रणा हो गयी और उसने बीहड़ का रास्ता अपनाया. फूलन ने चम्बल घाटी में सक्रिय डकैतों के एक गैंग को ज्वाइन कर लिया. गैंगवार के चलते फूलन को निशाना बनाया गया. फूलन देवी का अपहरण करके बेहमई गाँव ठाकुरों ने रेप किया और उसे मरा समझकर छोड़ दिया. फूलन को तब साथ मिला विक्रम मल्लाह का. फूलन ने विक्रम मल्लाह से शादी की. दोनों ने अपना गैंग बनाया और और सन 1981 में बेहमई का वीभत्स काण्ड हुआ. फूलन ने दो रिपिस्ट्स की शिनाख्त कर ली थी, फूलन उन्हें अपने साथ बेहमई गाँव में ले आयी और गैंग-रेप में शामिल अन्य लोगो की शिनाख्त किया. फूलन ने 22 ठाकुरों को एक लाइन में खड़ा करके गोली मार दी. एक महिला द्वारा अपने बलात्कार का बदला इससे भयानक और कहीं नहीं हो सकता। हालांकि माला सेन को दिये गये इंटरव्यू में बेहमई हत्याकाण्ड में फूलन ने अपनी भूमिका को ख़ारिज कर दिया था.
फूलन के केस को देखने वाली प्रसिद्द नारीवादी वकील इंदिरा जयसिंह ने कहा था-
“भारत में हर रोज कई महिलाओं के साथ रेप होता है. इसका कोई अधिकारिक आंकड़ा नहीं है कि वे अपने रेपिस्ट को मार देती है या जाति-पंचायत उन महिलाओं को कास्ट-प्राइड के नाम पर मार देता है. मै सोचती हूँ कि फूलन अपने साथ बीती हुयी ज्यादतियों से ऊपर उठ चुकी थी. फूलन अपने अतीत को कभी नहीं भूल पायी थी. फूलन ने जिस तरह से सवर्णों की ठसक और मर्दवादी ताने -बाने को चुनौती दिया था, उसे मालूम था कि जिंदगी इतनी आसान नहीं होगी, वो हमेशा उच्च स्तरीय पुलिस सुरक्षा की मांग करती रही थी.”
बेहमई हत्याकाण्ड के बाद देश -विदेश में फूलन के नाम की चर्चा होने लगी थी और चम्बल के बीहड़ में एक महिला डकैत का वर्चस्व हो गया था. लेकिन फूलन पर पुलिस का शिकंजा भी कसने लगा था. इसी बीच फूलन के पति विक्रम मलाह पुलिस मुठभेड़ में मारा जाता है.
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी फूलन के साथ हुयी ज्यादती और समाज के प्रति उसकी नफरत से वाकिफ थी. इंदिरा गांधी ने फूलन को सरेंडर करने को कहा. फूलन ने 1983 में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री और सामाजिक न्याय के समर्थक अर्जुन सिंह के समक्ष आत्म- सपर्पण कर दिया. आत्म समपर्ण करने के एवज में फूलन ने अर्जुन सिंह के समक्ष शर्ते रखी जिसे मान लिया गया. शर्ते थी:
उसके साथियों को मृत्युदंड नहीं दिया जाये। फूलन की अगली शर्त ये थी कि उसके गैंग के सभी लोगों को 8 साल से अधिक की सजा न दी जाए। लेकिन 11 साल तक फूलन देवी को बिना मुकदमे के जेल में रहना पड़ा और 1994 में आई समाजवादी सरकार ने फूलन को जेल से रिहा किया। फूलन अपने गैंग की लीडर थी और एक लीडर की तरह अपने गैंग के लोगो का भी ध्यान रखा.
रिहा होने के बाद फूलन अपने समाज को एकजुट करने के लिये एकलव्य सेना बनाई. फूलन जल्द ही अपने समाज की आइकॉन बन गयी. इसी बीच फूलन ने देश के कई समाजवादी नेताओं के साथ मंच साझा किया और पिछड़े समाज के उत्थान के प्रति अपने विचार प्रकट किया. लेकिन राजनीति समाजवादी पार्टी के बैनर से ही शुरू किया। फूलन 1996 में मिर्जापुर से लोकसभा के लिये चुनी गयी और लगातार दो बार सांसद चुनी गयी।
फूलन का सफ़र एक बीहड़ के डकैत से शुरू होकर संसद तक गया. संसद में उस समय सबसे चर्चित शक्सियत फूलन देवी ही थी. सांसद फूलन देवी पर सिनेमा और साहित्य की भी नजरे पड़ी. विश्विख्तात पत्रिका ‘टाइम’ ने फूलन को सदी की सर्वश्रेष्ठ महिलाओं में से एक बताया. भारतीय मीडिया और बौद्धिक जगत ने फूलन को भारतीय समाज और राजनीति के लिये कलंक बताया, वहीँ पूरे दुनिया में फूलन के साहस भरी जिंदगी को सलाम किया गया.
प्रसिद्द फिल्मकार शेखर कपूर ने फूलन देवी की जीवनी पर फिल्म बनाने की ठानी. शेखर कपूर ने माला सेन की किताब का एडाप्टेशन किया, ग्राउंड जीरो पर जाकर जानकारियां हासिल किया और 1996 में उनकी फिल्म आयी- बैंडिट क्वीन. फिल्म में फूलन का किरदार प्रसिद्द अभिनेत्री सीमा विस्वास ने निभाया. फिल्म काफी विवादस्पद रही. खुद फूलन ने इस फिल्म के कुछ फिल्मांकन का विरोध किया और न्यायलय में फिल्म के खिलाफ केस भी किया. फूलन को फिल्म के चार फिल्मांकन से ऐतराज था. शेखर कपूर ने वादा किया था कि वो सीन काट देंगे, लेकिन कुछ समय के बाद फिल्म जस की तस रिलीज हुयी. फूलन सिनेमा की आजादी के विरोध में नहीं थी.
फूलन ने प्रसिद्द पत्रकार और आज के बड़े कांग्रेसी नेता राजीव शुक्ला को दिए गये एक इंटरव्यू में कहा था- उन्हें फिल्म से कोई ऐतराज नहीं है, जो मेरे साथ हुआ है उसे पूरी दुनिया को देखना चाहिये. बस गलत सीन्स न दिखाये.
फूलन सांसद बनने के बाद उम्मेद सिंह से विवाह किया. ये उनकी तीसरी शादी थी. उम्मेद सिंह के साथ उनके सम्बन्ध खट्टे-मीठे रहे. फूलन प्यार, जज्बात और अहसास को ताउम्र खोजती रही, लेकिन उसे निराशा ही हाँथ लगी।
बीहड़ की बैंडिट क्वीन की जिंदगी का सफ़र संसद के गलियारे में जाकर ख़त्म हुआ. सांसद फूलन देवी 25 जुलाई 2001 में जब संसद से लौट रही थी तो उनके घर के पास पहले से घात लगाये लोगों ने फूलन पर ताबड़तोड़ गोलिया चलाई. फूलन ने वही दम तोड़ दिया. फूलन की हत्या की जिम्मेदारी शेर सिंह राणा ने ली. राणा ने बेहमई हत्याकाण्ड का बदला लेने की बात कही. लेकिन फूलन की मौत भी शानदार रही. फूलन की मौत एक जन-प्रतिनिधि के रूप में हुयी. फूलन का हत्यारा आज पे-रोल में जेल से बाहर है और हाल में हुये सहारनपुर दंगो में उसकी सलिप्ताता बतायी जा रही है। राणा का बाहर होना भारतीय कानून ब्यवस्था और न्याय व्यवस्था का मजाक होना है. फूलन देवी की हत्या हुये आज 23 साल हुये है, लेकिन आज फूलन नारी शक्ति का प्रतीक बन गयी है।
एक मल्लाह की बेटी ने अपने साहस- हौसला से पितृसत्ता को धुआं-धुआं कर दिया। जो आज फूलन को याद नहीं कर रहे वो किस दर्जे के/की फेमिनिस्ट होंगे, आप खुद सोचिये!!
शिवकुमार पटेल उर्फ़ ददुआ:
वहीं, दूसरी ओर शिवकुमार पटेल उर्फ़ ददुआ बुन्देलखण्ड का बेताज बादशाह के रूप में फेमस हुआ.
ददुआ का जन्म 1955-56 में चित्रकूट जिले के देवकली ग्राम में हुआ था. बुन्देलखण्ड का इलाका हमेशा से उपेक्षित रहा है. उत्तर प्रदेश में किसी की भी सरकार रही हो, बुन्देलखण्ड पर सरकार बहादुर की नजरें कभी इनायत नहीं हुयी. खेती- किसानी के अलावा और कोई जीविका का साधन नहीं था उस समय. शिवकुमार युवावस्था में खेती -किसानी में अपने पिता का हाँथ बटाना शुरू किया. किसी विवाद के चलते पास के गाँव रायपुर निवासी जगन्नाथ से झगडा हो गया. जगन्नाथ ने अन्य लोगों के साथ मिलकर शिवकुमार के पिता को गाँव में नंगा घुमाया. शिवकुमार को जब ये पता चला तो सीधा जगन्नाथ के घर पंहुचा और उसके सीने में दो गोलियां मार दी. यही से शिव कुमार पटेल ‘ददुआ’ बन गया.
ददुआ ने मानिकपुर के जंगलों को अपना अड्डा बनाया. उस समय बीडी के व्यापारी आदिवासियों का बहुत शोषण करते थे वही दूसरी ओर क्रेशर मशीन वाले धन्ना सेठ आदिवासियों के जंगल और पहाड़ का दोहन कर रहे थे. ददुआ आदिवासियों का मसीहा बनकर उभरा. ददुआ बीडी व्यापारियों और और क्रेशर मशीन के मालिकों को खूब लूटा और लुटे हुये माल- असबाब को गरीब आदिवासियों में बाँटा. आदिवासी उसे भगवान की तरह पूजने लगे थे।
ददुआ की राजनैतिक समझ बहुत तगड़ी थी. ददुआ के प्रभाव के चलते करीब 500 ग्राम प्रधान उसके समर्थक बन गये थे. ददुआ का प्रभाव क्षेत्र उत्तर प्रदेश में प्रतापगढ़ से लेकर मध्य प्रदेश के जबलपुर तक था. ददुआ ने बुन्देलखण्ड में सवर्णों के वर्चस्व को काफी हद तक कम कर दिया था. ददुआ शुरूआती दिनों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का समर्थक था. इसके बाद वो बसपा का समर्थक था. बसपा की बहुजन राजनीति को सपोर्ट करता था. 2002 के आस-पास बुन्देलखण्ड के बसपा लीडर्स से अनबन हो गयी, 2007 में जब बसपा की सरकार बनी तो उस समय ददुआ का पुलिस एनकाउंटर कर दिया गया.
कहा जाता है कि ददुआ एक समय बसपा के समर्थन पर पूरे बुन्देलखण्ड में ये ऐलान करता था-
वोट पड़ेगा हाथी पर,
नहीं तो गोली चलेगी छाती पर।
ददुआ के इस ऐलान के बाद बुन्देलखण्ड का दलित-पिछड़ा तबका बसपा को निडर होकर वोट करता था. ददुआ के समय बुन्देलखण्ड बसपा का मजबूत गढ़ माना जाता था. लेकिन ददुआ का अंत बसपा सरकार के समय पर ही हुआ। ददुआ करीब 30 सालों तक बीहड़ो में रहा. आजाद भारत में बीहड़ो में सबसे ज्यादा (वीरप्पन से भी ज्यादा) समय रहने का रिकार्ड ददुआ के नाम रहा. करीब 8 साल पहले ददुआ और उनकी पत्नी का भव्य मंदिर बनवाया गया है.
बुन्देलखण्ड के कुछ लोगों के लिये वो एक अपराधी था, लेकिन कुछ लोगों के लिये वो आज भी देवता से कम नहीं और आज भी उसकी पूजा अर्चना की जा रही है।
जैसे जैसे समय बीतता जा रहा है, इन दोनों शख्सियतों को लोग बहुतायत में याद कर रहे है. आखिर क्या क्या वजहें है कि कानून की नजरों में अपराधी व्यक्तियों में आम जनता की श्रद्धा बढती जा रही है. क्या आम आदमी, गरीब -दलितों का कानून-व्यवस्था से विश्वास उठता जा रहा है? क्या लोकतंत्र पूंजीपतियों की मुठियों में कैद होता जा रहा है? क्या फूलन देवी और ददुआ पैदा होते रहेंगे या फिर हमारा समाज में बदलाव होगा, ये सवाल अनुत्तरित है।
लेखक डॉ अनूप पटेल जेएनयू के छात्र रहे हैं और ओबीसी महासभा के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं।