राजा साहब ने चिनहट की लड़ाई में अंग्रेजों को मुंहतोड़ जवाब दिया था
यूपी80 न्यूज, लखनऊ
1857 की क्रांति के नायक अमर शहीद राजा जयलाल सिंह के 163वीं शहीदी दिवस पर लखनऊ के राजा जयलाल सिंह पार्क में श्रद्धांजलि अर्पित की गई। कार्यक्रम का आयोजन कुर्मी क्षत्रिय सभा की तरफ से किया गया था। इस अवसर पर कुर्मी क्षत्रिय सभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष डीएम कटियार ने अमर शहीद राजा जय लाल सिंह की वीर गाथा पर प्रकाश डाला। साथ ही अमर शहीद राजा जयलाल सिंह के वंशज और छठवीं पीढ़ी कुंवर ऋषभ सिंह भी कार्यक्रम में मौजूद रहे। निघासन विधायक शशांक वर्मा के अलावा जय शंकर वर्मा, हरि शंकर वर्मा, जय सिंह सचान, सुदर्शन कटियार, दीपक पटेल, दिनेश सचान, पटेल महेश कुमार वर्मा, डॉक्टर आरती सिंह, चंद्र राज सिंह पटेल एवं अन्य कई लोगों ने भी कार्यक्रम में प्रतिभाग किया और अमर शहीद राजा जयलाल सिंह की प्रतिमा पर पुष्पांजलि अर्पित की।
राजा जय लाल सिंह की शौर्य गाथा, एक नजर:
राजा जयलाल सिंह आजमगढ़ के नाजिम थे। वह नवाब की सेना के सेनापति बनकर युद्ध में हिस्सा ले रहे थे। युद्धकौशल और रणनीति बनाने में माहिर राजा जयलाल सिंह पर ही यह जिम्मेदारी थी कि वह कहां और कितनी टुकड़ी तैनात करें, जिससे नगर के भीतर अंग्रेज प्रवेश न कर सकें। वह बेहतरीन तलवारबाज थे और कुशल रणनीतिकार भी। यही वजह है कि कम सैनिक होने के बावजूद उन्होंने लंबे समय तक अंग्रेजों को शहर में प्रवेश नहीं करने दिया। आलमबाग की लड़ाई के दौरान जब क्रातिकारियों की सेना के पांव उखड़ने लगे तब राजा जयलाल सिंह को तालकटोरा रोड की तरफ का हिस्सा संभालने को कहा गया। वह पूरी तरह वहां डटे रहे और ऐसी योजना बनाई कि जल्द से उधर से अंग्रेजों को खदेड़कर उस ओर ले जाएं जहां से विद्रोही सैनिकों को संगठित किया जा सके। अंतत: वह अपनी योजना में सफल रहे और आलमबाग का युद्ध क्रातिकारियों के पक्ष में गया।
राजा जय लाल सिंह की भूमिका गदर के दौरान युद्ध मंत्री की थी। अंग्रेजों को रेजीडेंसी से बाहर निकालने के लिए कानपुर से सेना के आगमन के प्रयास हो रहे थे, लिहाजा लखनऊ-कानपुर मार्ग की सुरक्षा का जिम्मा राजा जयलाल सिंह ने अपने ही हाथों में ले रखा था। जब जनरल आउट्रम की सेनाएं आलमबाग से कैनाल की ओर मुड़ीं तब राजा जयलाल सिंह ने उन सभी अंग्रेजों को मारने का फैसला कर लिया था, जो कैसरबाग स्थित रुस्तम-उद-दौला कोठी में थे। राजा जयलाल की योग्यता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वह राजधानी में हो रहे गदर में तो सक्रिय थे ही, साथ ही अन्य स्थानों पर क्या हो रहा है इसकी भी खोज- खबर रखते थे।
हालांकि बाद में राजा जयलाल सिंह को बंदी बना लिया गया। एक अक्टूबर 1859 को उन्हें हज़रतगंज में स्थित वर्तमान में राजा जायलाल सिंह पार्क में इमली के पेड़ पर उन्हें फांसी दे दी गई।