हिमांशु मिश्र, नई दिल्ली
छह महीने, एक साल या अधिक से अधिक डेढ़ साल। जदयू को या तो बीजेडी बनना है या फिर भाजपा में विलीन हो जाना है। ठीक है कि राजग सत्ता में आया। नीतीश की बदौलत भाजपा पहली बार बिहार में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। हालांकि जनादेश कुछ इस तरह का है कि ढाई दशक की सियासत में नीतीश का पाया इस बार कमजोर है। सियासत की दृष्टि से भी और स्वास्थ्य की दृष्टि से भी। इस जनादेश ने नीतीश की सबसे बड़ी पलटने की ताकत छीन ली है। अब स्थिति यह नहीं है कि परिणाम के पहले और परिणाम के बाद भी नीतीश जिधर हैं, सत्ता भी उधर ही है।

विचारधारा समेत तमाम मामलों में आप भाजपा को लाख गाली दें, कड़ी आलोचना करें, मगर आपको इनसे राजनीति सीखनी होगी। भाजपा ही नहीं संघ से भी। इन्हें समय के साथ बदलना आता है। प्रधानमंत्री मोदी ने महज एक दशक में भाजपा को ब्राह्मण-बनिया की छवि से बाहर निकाल लिया है। इनको पता है कि कैसे जदयू को भाजपा बनाना है या जदयू को कैसे अप्रासांगिक कर देना है। इस रास्ते उसे अब चंद कील कांटे दुरुस्त करने हैं। संजय झा, ललन सिंह साथ हैं। बस विजय चौधरी, बिजेंद्र यादव, श्रवण कुमार और अशोक चौधरी जैसे ओबीसी नेताओं को साधना है।

पहले भाजपा को डर था कि जदयू को भाजपा बनाने या खुद में आत्मसात कर लेने की प्रक्रिया इन्हीं नेताओं के कारण खटाई में पड़ सकती है। हालांकि अब परिस्थिति दूसरी है। राजद मृतप्राय है। चुनाव में हार बड़ी बात नहीं है। सवाल है कि हारने के बाद पार्टी क्या सोच रही है? क्या वाकई ईमानदार विश्लेषण करना चाहती है? राजद में यह नहीं दिखता। पार्टी हार के वास्तविक कारणों के बदले वोट चोरी, ज्ञानेश कुमार, चुनाव आयोग पर ही अटकी है। चूंकि राजद में ईमानदार स्वीकारोक्ति का अभाव उसे भविष्य में भी इसी तरह अप्रासांगिक बनाए रखेगा, इसलिए जदयू में सामाजिक न्याय से जुड़े ईबीसी, ओबीसी नेता डूबते नाव की सवारी करना नहीं चाहेंगे। दरअसल राजद को अब तक यह बात नहीं समझ आई कि भाजपा ने कैसे ढाई दशक पुराने कथित जंगलराज की धारणा को न केवल बनाए रखा, बल्कि इसके बाद की दूसरी-तीसरी पीढ़ी को इसी मुद्दे पर साध लिया। लालू-राबड़ी राज में जो पैदा भी नहीं हुए थे या जिन्हें उस दौर का कुछ भी याद नहीं है, वह वर्ग अगर जंगलराज के भय से राजग के साथ खड़ा होता है तो इसके भी राजनीतिक निहितार्थ हैं।

वैसे भी वंशवाद को जितना बुरा कहिए, मगर यह सच्चाई है कि क्षेत्रीय दल इसके बिना जिंदा नहीं रह सकता। ओडिशा में बीजेडी, तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक सबसे ताजा उदाहरण हैं। यहां तक कि कांग्रेस को ही देख लीजिये। क्या इस पार्टी की गांधी परिवार के बिना कल्पना की जा सकती है? पारिवारिक विरासत न होने के कारण ओडिशा में बीजेडी मृतप्राय है। तमिलनाडु में जयललिता के बाद अन्नाद्रमुक का फातिहा पढ़ा जा रहा है। पश्चिम बंगाल में अविवाहित ममता बनर्जी गहरे संकट में हैं। कारण नवीन और ममता का अपना वंश नहीं है। जयललिता का अपना वंश न होने के कारण अन्नाद्रमुक तमिलनाडु में धीमी मौत मर रही है। बिहार में नीतीश के साथ भी यही स्थिति है। उनके परिवार में कोई ऐसा नहीं है जो इस स्थिति को संभाल पाए। दरअसल ये दल जिन जातीय या अन्य समीकरणों के कारण अपना वोट बैंक बनाते हैं, उनमें उनके समर्थक परिवार के सदस्य के बाद खुद को इस परिवार का सर्वाधिक करीबी मानते हैं। संसद भवन में जब मैंने किसी उपचुनाव में मुलायम परिवार के ही सदस्य को उम्मीदवार बनाने पर सवाल उठाए तो दिवंगत सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने कहा था कि सपा में हमारी जाति का तानाबाना ही ऐसा है कि परिवार के बाहर स्वजातीय को टिकट देने पर स्थिति संभाले नहीं संभलेगी।
बहरहाल बात बिहार की। जदयू को देर सबेर भाजपा के आगोश में समाना ही है। भाजपा ने खूबसूरत रणनीति के साथ अपना चोला बदल लिया है। इकलौते ब्राह्मण को मंत्रिमंडल में शामिल करने के सवाल पर भले ही हाय तौबा मची हो, मगर यह भाजपा के हित में है। यह बिरादरी भाजपा को जितना गरियाएगी, उतना ही पार्टी को लाभ होगा। वैसे भी ब्राह्मण बिरादरी बिहार और उत्तर प्रदेश में मुसलमान हो गई है। दल विशेष के प्रति अंधभक्ति के कारण कोई भी दल न तो पद के मामले में और न ही टिकट के मामले में इन्हें अहमियत दे रहा है। जब मुफ्त में ही वोट मिलना है तो कोई दल क्यों पूछेगा? हां, बिहार की राजनीति तेजी से करवट ले रही है। शून्य सीट लेने वाले प्रशांत किशोर भविष्य में ज्यादा प्रासांगिक होंगे और जदयू की तरह राजद के अस्ताचल की ओर बढऩे की प्रक्रिया में दिनोंदिन तेजी आएगी। ओवैसी का झंडा अब उत्तर और पूर्वी भारत में और बुलंद होगा।
(वरिष्ठ पत्रकार हिमांशु मिश्रा की फेसबुक वॉल से)

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