मारीशस के अप्रवासी घाट को ताजमहल व अजंता एलोरा जैसा मिला है सम्मान, कोई सरकार मारीशस से सीखे किसानों व मजदूरों को सम्मान देना
अप्रवासी घाट, मारीशस, गन्ने की खेती और पीढ़ियों की संघर्ष गाथा
अरविंद कुमार सिंह, (मारीशस से लौटकर)
भारत से करीब छह हजार किलोमीटर दूर मारीशस है, जो चारों ओर समुद्र से घिरा है। मारीशस में हरियाली के साथ घरों के सामने तक लगा गन्ना इसकी रौनक में चार चांद लगाता है। साथ ही हमारी धरती से गए मजदूरों की कई पीढ़ियों के श्रम के सम्मान को भी दिखाता है। आज जिस तरह उनके ही बंधु बांधव भारत में कई जगह सड़कों पर भटकते हुए धक्के खा रहे हैं, उनको याद करते हुए यह पोस्ट लिख रहा हूं। मजदूरों को सम्मान देना हो तो उसे कोई समाज और सरकार वैसा दे सकती है जैसा मारीशस ने उनके पांवों के निशान और योगदान को सहेज कर दिया है। मारीशस पहुंचे पहले अप्रवासियों के जत्थे के सम्मान में 2 नवंबर को राष्ट्रीय स्तर पर मारीशस सरकार ‘अप्रवासी दिवस’ मनाती है। यही नहीं उनके पांव जहां पहली बार पड़े वह अप्रवासी घाट आज यूनेस्को की वैसी ही विश्व धरोहर है, जैसे हमारा ताजमहल और अजंता एलोरा। उसके गेट पर ही सबसे पहले उनकी तस्वीरें लगीं हैं जो सबसे पहले आए थे और श्रम से मारीशस को सींचा था।

आज का चमकता मारीशस देखें तो इस बात का बोध भी नहीं होगा, इसकी माटी के नीचे अप्रवासियों की कितनी अंतहीन पीड़ा छिपी है। मारीशस की राजधानी पोर्ट लुई के अप्रवासी घाट पर 1834 में भारत के गिरमिटिया मजदूरों का जो पहला जत्था पहुंचा वह गन्ने की खेती के काम में लगा। इन्होंने ही मारीशस के लड़खड़ा रहे चीनी उद्योग को ऐसी ताकत दी कि 1835 के बाद ढाई लाख टन चीनी तैयार कर मारीशस ने रिकार्ड बना दिया। 1859 तक यहां चीनी के 260 कारखाने खुल गए। तब 11 हजार बीघे में गन्ना बोया जाता था और एक वो दौर भी था जब मारीशस की आय का 65 फीसदी गन्ने की बदौलत आता था और 1861 तक मारीशस की तीन लाख की आबादी में से दो लाख भारतीय श्रमिक थे। आज भी मॉरीशस की अर्थव्यवस्था का एक प्रमुख आधार गन्ने की खेती और चीनी उद्योग है, जिसे बढाने में भारतीय मूल के लोगों का ही योगदान है। वे भी अधिकांश पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार मूल के हैं।
गंगा के पार ले जाने के बहाने महासागर पार करा दिया:
अंग्रेजों ने अप्रवासी मजदूरों को कहा था कि बस गंगा के उस पार ले जा रहे हैं। लेकिन हिन्द महासागर के पार ले जाया गया। आज जो मजदूर पांवों से मुंबई से यूपी बिहार के तमाम जिलों को नापते चले आ रहे हैं, ये उनके पुरखों की कहानी है। अचानक ही इस परिवेश में अप्रवासियों और खास तौर पर मारीशस की याद आ गयी।
इनके श्रम से मारीशस आज धरती का स्वर्ग है। सत्ता और प्रशासन पर उनके वंशज कायम हैं। ये अपना धर्म और भोजपुरी पहचान कायम रखे हैं, लेकिन चंद अपवादों और बाद में जाने वालो को छोड़ दें तो आपको किसी की जाति का पता करना भी सरल नहीं होगा। मारीशस में भारतीय मूल के लोग अपने नाम में जाति सूचक उपाधियों की जगह मारीशस पहुंचे अपने पहले पुरखे का नाम लगाते हैं। शिवसागर रामगुलाम, अनिरुद्ध जगन्नाथ, जगदीश गोवर्धन जैसे नामों में रामगुलाम, जगन्नाथ, गोबर्धन उनके उस पुरखे का नाम है जो मारीशस पहुँचने वाला आरंभिक व्यक्ति था।

चट्टान के नीचे सोना की लालच दी गई:
मारीशस के पोर्ट लुई बन्दरगाह पर 2 नवम्बर 1834 के दिन पहुंचे आरंभिक गिरमिटिया मजदूरों को उनके अंग्रेज मालिकों ने ये बताया कि इस मारीच द्वीप पर विशाल चट्टानों के नीचे सोना है, जिनको निकालना है। उसके बाद की लंबी कथा है, यातनाओं की, भूख की और जिंदा रहने के संघर्ष की। ये उनकी जिंदगी का हिस्सा ही बन गया। मॉरीशस के ही एक कवि विश्वामित्र गंगा आशुतोष की कविता देखें…
किसी पत्थर के नीचे
दबा कोई सोना
उन्हें नहीं मिला,
उन्होंने उसे छुआ
और बदल दिया
हरेक पत्थर को
ठोस सोने के रूप में
मारीशस में 2 नवंबर, 1834 को एटलस नामक जहाज़ से बिहार से गिरमिटियों को लाया गया। बाद में 1920 तक मारीशस में बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के साढ़े चार लाख से अधिक गिरमिटिया मजदूर आए। सामान के नाम पर ये अपने साथ गीता, रामायण, सुखसागर भी लाए थे जो कठोर श्रम साधना के बाद इनके काम आया। इन ग्रंथों को, उनके माईग्रेशन सर्टिफ़िकेट और रजिस्टर मारीशस सरकार ने सहेज कर रखा है, जिसमें हर व्यक्ति की बारीक से बारीक जानकारी है।
पढ़ते रहिए www.up80.online ‘द चंपा मैन’: कौन बनेगा करोड़पति सुशील कुमार की नई पहचान
अधिकतर भोजपुरी थे इस नाते 19वीं सदी के आखिर तक बोलचाल की भाषा के रूप में यहां भोजपुरी का विकास हो चुका था। 1901 में गांधीजी संयोग से यहां पहुंचे और भारतीयों की दशा देखी तो उनकी मदद को 1907 में बैरिस्टर मणिलाल को वहां भेजा। उन्होने 15 मार्च 1909 को हिंदुस्तानी साप्ताहिक अखबार आरंभ किया, जिसकी भाषा अंग्रेजी और गुजराती थी। बाद में गुजराती की जगह ये अखबार हिंदी में छपने लगा क्योंकि अधिकतर गिरमिटियों को हिंदी आसानी से समझ में आती थी। इसके बाद ही मारीशस में हिंदी का विकास आरंभ हुआ।
मारीशस की आबादी आज 12 लाख से अधिक है जिसमें 68 फीसदी से अधिक भारतीय मूल के लोग हैं। यहां का अप्रवासी घाट एक दौर तक कुली घाट या इमिग्रेशन डिपो कहा जाता था। घाट के पास बने छोटे छोटे कमरों में इनको 48 घंटे रखा जाता जहां इनकी स्वास्थ्य जांच होती थी। फिर इनको अलग अलग कोठियों में भेजा जाता। 1834 से 1923 के दौरान वहां गए 4 लाख 60 हजार भारतीय मजदूरों में एक लाख साठ हजार भारत लौटे बाकी मारीशस में ही बस गए। 1920 के बाद गिरमिटियों की तस्वीर बदली तो आप्रवासी रक्षक का पद समाप्त हो गया और मजदूर विभाग समाप्त हो गया। अप्रवासी घाट नष्ट होने लगा। 1970 के दशक के दौरान विक्रम सिंह रामलाला ने अप्रवासी घाट के अवशेषों को बचाने को आंदोलन चला कर मुहिम को ऐसा रंग दिया कि सहेज कर यह जगह 1987 में राष्ट्रीय स्मारक घोषित हुई और 2006 में इसे विश्व धरोहर स्थल का दर्जा मिला।
पढ़ते रहिए www.up80.online अनाज व नौकरशाह दोनों पैदा करते हैं ‘तेरवां दहिगवां’ के किसान
किसान व मजदूर का सम्मान:
2 नवंबर, 1834 को जब भोजपुरिया मजदूर गए तो मारीशस एक पथरीला और प्राकृतिक प्रकोपों से घिरा गुजर-बसर करने लायक स्थान नहीं था। लेकिन अपने अदम्या साहस से उन्होंने कैसा देश बनाया, वह उसे देख कर ही समझा जा सकता है। एक ऐसा देश जहां श्रम का सम्मान है। किसान के श्रम का भी और मजदूर के भी श्रम का। एक प्राकृतिक झील यानि परी में भारत से गंगा जल लाकर मिलाया और इसे गंगा तालाब बना दिया,जो आज भारतवंशियों की गंगा ही है।
आजमगढ़, गाजीपुर, जौनपुर से भारी तादाद में गये गिरमिटिया मजदूर:
अप्रवासी घाट पर कभी मनुष्यों के साथ जानवरों का सलूक होता था। 1834 को पहुंचे पहले दस्ते में गरीब श्रमिकों को गिरमिटिया नाम दिया गया। मारीशस में इन गिरमिटिया मजदूरों की संतानें आज सत्ता शीष पर हैं। यहां आने वाले अधिकांश अप्रवासी गंगा के मैदानी भाग और मद्रास प्रेसीडेंसी के जिलों से थे। लेकिन बड़ी संख्या बस्ती, फैजाबाद, गोंडा, गोरखपुर, आजमगढ, गाजीपुर और जौनपुर की है। कुछ लोग इलाहाबाद, बनारस, कानपुर, आगरा, अलीगढ़ और मथुरा से भी थे। वहीं बिहार के अधिकतर लोग शाहाबाद, पटना, दरभंगा, गया और सारण से गए थे। मद्रास वाली श्रेणी में तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़ और मऱाठी भी हैं।
मॉरिशस के जाने माने साहित्यकार अभिमन्यु अनत की कविता यहां के आप्रवासी घाट की एक दीवार पर उद्धृत है।
आज अचानक
हिन्द महासागर की लहरों से तैर कर आई
गंगा की स्वर-लहरी को सुन
फिर याद आ गया मुझे वह काला इतिहास
उसका बिसारा हुआ
वह अनजान आप्रवासी…
बहा-बहाकर लाल पसीना
वह पहला गिरमिटिया इस माटी का बेटा
जो मेरा भी अपना था, तेरा भी अपना
नोट: (अरविंद सिंह राज्यसभा चैनल में वरिष्ठ पत्रकार हैं)
पढ़ते रहिए www.up80.online कौड़ियों के भाव सब्जियां बेचने वाले किसान भी हैं मुआवजा के हकदार
पढ़ते रहिए www.up80.online आर्थिक संकट में हैं देश को 40 फीसदी मक्का देने वाले बिहार के किसान