कांग्रेस प्रवक्ता अनूप पटेल ने शब्दों के जरिए फिल्म आर्टिकल 15 को जीवंत किया
Lucknow, 4 july
फ़िल्म 3 रुपये ज्यादा मजदूरी और फ़िर शोषण के विभिन्न पहलुओं के सेंट्रल आइडिया पर फ़ोकस है। आजादी से पहले से लेकर अब तक जब-जब काम और दाम की मांग की गयी, अपना मेहनताना मांगा, तब-तब संघर्ष हुआ। जो आज शोषित है, वो कभी आजाद थे, सक्षम थे। अन्न उगाना, सोना बनाना और कपड़े सिलना उन्हें आता था। उनकी एक गलती थी- ईमानदार होना, सीधा होना। बस बाजार और धनपशुओं की चालाकियों को समझ न पाये।
अंग्रेजों के आने से पहले भी देश में व्यापार था। ध्यान रहे- अंग्रेज व्यापारी थे, पहले उनकी कंपनी थी- ईस्ट इंडिया कंपनी। बाद में यहां राज किया। पहले भी जितने बाहर से आये, सबकी नजर धन-संपदा पर ही थी। व्यापारियों के हितों को तब राजा ख़्याल रखता था, आज के पूंजीपतियों का ख्याल देश का प्रधानमंत्री करता है।
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शुरुआती दौर में जिस समुदाय ने जितना ज्यादा संघर्ष किया, उसे उतना ही अपमानित किया गया। मानसिक-आर्थिक और शारीरिक रूप से उसे दोयम दर्जे का बनाने की कोशिश की। जिस समुदाय ने धनपशुओं का साथ दिया वे आज मजे में है।
सबसे पहले कामगार समुदाय का पेशा-व्यवसाय बाजार ने छीना, उन्हें मजदूर बना दिया। बड़ी-बड़ी कंपनियों ने जूता बनाने वाले, फर्नीचर बनाने वाले और कपड़े सिलने वाले जैसे समुदायों को बर्बाद कर दिया। ये इकट्ठा न होने पाये तो इनकी जातीय पहचानो को प्रमुख रूप से उभारा गया। फ़िल्म में एक सीन में- जिसमे एक जाटव दरोगा अपने को पासी जाति से ऊंचा मानता है और उनके हाँथ का छुवा पानी भी नही पीता। दूसरे सीन में- जिसमे IPS रंजन जो ब्राह्मण तो है उसे भी ब्राह्मण की कैटेगरी में नीचा बताया जाता है। आज भी सभी इसी क्रम-बद्ध जातीय सीढ़ी में मजे कर रहे है जबकि धनपशु सबका शोषण कर रहा है।
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अब अंतिम निशाना किसान पर है। किसान की जमीन, उसकी उपज और उसकी संस्कृति सब निशाने पर है। किसान पैदा करता है, पूरा देश खाता है। लेकिन देशी- विदेशी धनपशुओं को ये हमेशा खटकता रहा कि जब तक इसे मजदूर नहीं बनाया जायेगा, तब तक भारत गुलाम नहीं हो पायेगा। आजकल आटा, दाल, दूध, सब्जी मॉल में क्यों बिकने लगे हैं? किसान को अपना दूध, आलू सड़क पर क्यों फेकना पड़ रहा है। भाजपा सरकार ने भूमि अधिग्रहण बिल को पास करवाने की नाकाम कोशिश क्यो की थी? किसान भी संगठित न होने पाये इसलिये जातीय पहचान को मजबूत किया गया। जो भी किसान आंदोलन हुये, या तो तोड़ दिया गया या फिर उन्हें अपना चाटुकार बना लिया।
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ध्यान दिया जाये तो 1990 के दशक से राजनीतिक विमर्श का दायरा अगड़ा-पिछड़ा, ब्राह्मण-दलित के बीच रहा। निजीकरण की शुरुआत भी इसी समय हुई। सरकारी नौकरियों में किसान समुदाय की जो हिस्सेदारी 1990 में थी, कमोबेश वही आज भी है। तो किसका विकास हुआ और किसका विनाश?
पूरा विकास का मॉडल इस समय किसानों की आत्महत्या और कामगारों के शोषण पर टिका है।
लौटते हैं फिर से मूवी पर:
मूवी शुरू हुई थी 3 रुपया मजदूरी बढ़ाने पर। विलेन अंशुल कहता है इन्हें औकात में रखना है। सबकी एक औकात होती है।
… ठीक कहा सबकी एक औकात होती है। अंशुल के यहां छोटी कामगार जातियों की औकात बतायी जाती है। बड़ी कंपनियों में अंशुल जैसे लोगो की औकात बतायी जाती है। नीचे अंशुल बदलाव नहीं चाहता, ऊपर अंशुल को नहीं मिलता। जो जहां है उसी व्यवस्था को कायम रखना चाहता है। ये बाजार का धर्म है।
किसी भी बड़ी कंपनी को तानाशाह शासक के साथ डील करने में बड़ी आसानी होती है, यदि जनता विद्रोह करेगी तो तानाशाह ठीक कर देगा। पहले अमेरिका और अब चीन ने कई लैटिन अमेरिकी और अफ्रीकन देशों के डेमोगॉग और सैनिक तानाशाहों से डील करके उनके बाजार पर कब्जा किया है या कर रहे हैं। भारत में भी विदेशी कंपनियों को सहूलियत दी जा रही है, रिटेल क्षेत्र पूरी तरह से सौंप दिया गया है। कुछ लोग इसको विकास कहते हैं।
सारांश: मूवी का विषय नीति-निदेशक तत्वों (आर्टिकल 36-51) के नजदीक है, जो आर्थिक समानता की बात करता है। लेकिन देश को राजनैतिक मकड़जाल में ऐसा फांस दिया गया, जिससे लोग अपनी आर्थिक गुलामी को महसूस नहीं कर पा रहे हैं।