राम मंदिर आंदोलन के अलावा सख्त प्रशासक के तौर पर याद रहेंगे कल्याण सिंह: श्याम लाल यादव, वरिष्ठ पत्रकार
यूपी80 न्यूज, नई दिल्ली
उत्तर प्रदेश के पूर्व-मुख्यमंत्री कल्याण सिंह नहीं रहे। जहाँ तक मुझे पता है अभी वे प्रदेश के तीन सबसे पुराने विधायकों में थे। उनके साथ 1967 में पहली बार विधानसभा में आये दो अन्य लोग हैं (श्री मुलायम सिंह यादव, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, जसवंतनगर; और श्री दल सिंह यादव, भारतीय जनसंघ, जलालाबाद)। कल्याण सिंह उस पीढ़ी के नेताओं में थे, जिन्होंने पोस्टकार्ड और साइकिल युग में पार्टी को खड़ा किया था। उनकी बेहद सुन्दर हैंडराइटिंग में लिखे पोस्टकार्ड उनके बहुत से साथियों ने सहेज कर रखे हैं।
1989 के आस-पास जब उत्तर प्रदेश में भी भाजपा का उभार होने लगा तो वे प्रदेश की राजनीति के केंद्र में आ गए। वह दौर था जब भाजपा को ब्राह्मण-बनिया पार्टी से आगे ले जाने के प्रयत्न हो रहे थे। वर्षों तक उनकी और कलराज मिश्र की जोड़ी का प्रदेश भाजपा पर प्रभुत्व रहा। 1989 में मुलायम सिंह यादव की सरकार के बाद 1991 में वे मुख्यमंत्री बने।
उनके तुकबंदी युक्त भाषणों के कारण और दृढ़तापूर्वक, अड़ियल ढंग से अपनी बात रखने के कारण उनकी नई पहचान बनी। उनकी सरकार ने जब चार विधायकों को एक-एक कर जेल भेजा (उस समय ये बड़ी बात थी), परीक्षाओं में नकल रोकने के लिए उसे संज्ञेय अपराध घोषित किया गया और उनके आदेशों में चालबाज़ी करने वाले एक मंत्री को बर्खास्त किया गया तो उनकी छवि एक सख्त प्रशासक के तौर पर उभरती गयी। अपराधियों और परीक्षा के नकलचियों की रूह कांपती थी। मुठभेड़ में अपराधियों की जाति देखकर मारने या बचाने के आरोप या फिर फर्जी मुठभेड़ के पीड़ितों की जाति देखकर मुआवजा देने या न देने के आरोप नहीं लगते थे। लेकिन वह धाक और धमक बाद की उनकी सरकारों में नहीं लौट पाई।
जीवन के आखिरी दो दशक कल्याण सिंह के जीवन में बड़े उथल-पुथल में बीते। उन्हें मुख्यमंत्री पद से जब हटाया गया तो केंद्र की राजनीति में आने को तैयार नहीं हुए, वे लगातार पाला बदलते रहे। उन्होंने अलग राह पकड़ ली। पार्टी के कुछ गुटबाज और अति-महत्वाकांक्षी नेताओं के जाल में वे फंसते गए। प्रदेश भाजपा में धीरे-धीरे नई पीढ़ी कब्ज़ा करती चली गयी और पार्टी रसातल की ओर जाती रही। 1992 के बाद भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार 2017 में ही लौट पायी और 2003 से 2017 के बीच तो वह प्रदेश में साझे की सत्ता से भी दूर ही रही। पत्रकार के नाते अपना भी उनसे कई बार मिलना हुआ और बहुत सारे संस्मरण हैं। कई बहुत दिलचस्प हैं। भाजपा नेताओं, राम मंदिर और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में उनकी भाजपा में रहने के दौरान और भाजपा से बाहर रहने के दौरान की गयी टिप्पणियों में बहुत फर्क था। हमारी पीढ़ी में जिनकी भी थोड़ी-बहुत राजनीति देखने-समझने में रुचि थी उन्होंने कल्याण सिंह को बनते-बदलते देखा। अंततः वे भी उन नेताओं की कतार में शामिल हुए जो नेहरू परिवार के वंशवाद को भला-बुरा कहते हुए नेता बने, लेकिन अपने बच्चों और परिवारीजनों को राजनीति में आगे बढ़ाना उनकी भी सबसे बड़ी प्राथमिकता बन गयी। भाजपा में ऐसे कई नेता हैं, कई प्रदेशों में हैं।
प्रदेश में हर वर्ग में कभी खासा सम्मान अर्जित करने वाले नेता ने पहले पिछड़ों का नेता बनने की विफल कोशिश की, फिर अपनी जाति पर पकड़ को भुनाते हुए भाजपा में आते-जाते रहे। उनकी जाति के लोग अपने “बाबू जी” के अनुसार चलते रहे और इसी नाते उनकी राजनीति मरने नहीं पाई और उनका महत्व भाजपा के लिए बना रहा। 2014 के लोक सभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को जो छप्पर फाड़ सफलता मिली उसमें उनके योगदान को भाजपा के नए केन्द्रीय नेतृत्व ने रेखांकित किया और उन्हें भरपूर सम्मान दिया।
लेकिन जिस तरह उन्हें राम मंदिर आंदोलन के प्रतीक के तौर पर पेश किया जा रहा है, उसे देखकर लगता है कि जब विवादों के पटाक्षेप के बाद ट्रस्ट आदि का गठन हो रहा था और शिलान्यास के लिए आमंत्रितों की सूची बन रही थी तो उनका विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए था.
उत्तर प्रदेश जनसंघ-भाजपा का जब भी इतिहास लिखा जाएगा उसमें कल्याण सिंह पर बहुत महत्वपूर्ण और बड़ा अध्याय होगा। उसे पढ़ना और समझना राजनीति-शास्त्र के अध्येताओं के लिए काफी रोचक होगा।
1999 में जब उनसे पूछा जाता था कि वे भाजपा छोड़ सकते हैं, तो वे नकारते हुए कहते थे, “मेरा शव भाजपा के ही झंडे में लिपट कर जाएगा.” उनकी यह बात सही निकली।
कल्याण सिंह जी को भावभीनी श्रद्धांजलि…
साभार: वरिष्ठ पत्रकार श्याम लाल यादव जी की फेसबुक वॉल से