इंटेलिजेंट नीतीश कुमार बनाम साख के संकट से गुजरता विपक्ष
दुर्गेश कुमार, पटना
भारत में टीम अन्ना Anna Hazare ने कांग्रेस के करप्शन सीरिज के विरोध में आन्दोलन के लिए विजुअल इफेक्ट का सबसे पहला प्रयोग किया था। शुरुआत में कम भीड़ को झूलते हुए कैमरे से 75 डिग्री पर रखकर भीड़ को अधिक दिखाया जाता रहा। टेलीविजन पर, फेसबुक पर क्रन्तिकारी स्लोगन सुनकर युवा एकजुट होने लगे। आन्दोलन के परिणाम से सब अवगत है।
‘इण्डिया अगेंस्ट करप्शन India Against Corruption’ के उस आंदोलन के बाद विजुअल इफेक्ट का सबसे बड़ा प्रयोग प्रशांत किशोर ने नरेन्द्र मोदी के लिए किया। नकली लाल किले से भाषण, दिल्ली के कॉलेज में आधे पानी भरे शीशे के गिलास में संभावना देखने वाले नरेन्द्र मोदी की भींचती हुए मुट्ठी वाली तस्वीरें..
अखबारों के संपादकों से लायजनिंग कर कब हंसती हुई तस्वीरें लगाना है, कब रोते हुए, कब शीश झुकाते हुए.. विजुअल इफेक्ट की मदद से आडवाणी पर नरेन्द्र मोदी Narendra Modi भारी पड़ गये। यह अलग बात है की इस विजुअल इफेक्ट को पैदा करने के लिए कितने ‘अम्बानियों, अदानियों’ की मदद ली गयी।
विजुअल इफेक्ट की अपनी सीमाएं होती है। विजुअल इफेक्ट से थोड़ी देर के लिए रोमांच लाया जा सकता है, औसत प्रयास को क्रांतिकारी जैसा एह्सास कराया जा सकता है। लेकिन जब ये विजुअल गुब्बार फूटता है तब आपको धरातल पर किये गये कामों का ही सहारा होता है। अरविन्द केजरीवाल से लेकर नरेन्द्र मोदी तक की अपनी साख थी और सामने करप्शन की सीरियल चला रही कांग्रेस थी।
बिहार Bihar में भी विजुअल इफेक्ट का इस्तेमाल कर विपक्ष तेजस्वी यादव Tejaswi Yadav को बड़ा चेहरा बताने पर तुला हुआ है। फोटोशॉप, ट्विटर, फेसबुक, यूट्यूब का बेहतरीन प्रयोग हो रहा है। इस विजुअल इफेक्ट से समर्थक युवा उत्तेजित हो रहे है। हो हल्ला, चर्चा बिना परचा का हो रहा है।
सनद रहे कि भारत में 23 प्रतिशत लोग फेसबुक का इस्तेमाल करते है। नियमित तौर पर फेसबुक चलाने वाले यूजरों की संख्या 10 से 15 प्रतिशत ही है। फेसबुक पर सक्रिय लोग 25 से 34 वर्ष की उम्र की कैटेगरी के सबसे अधिक हैं, जो समझदार हैं, जानकार हैं, आधुनिक हैं. बिहार में ट्विटर यूजरों की संख्या आंशिक रूप से ही है।
बिहार के गाँवों-शहरों में आज भी नीतीश कुमार Nitish Kumar, लालू प्रसाद यादव, सुशील मोदी, रामविलास पासवान के अलावा कोई भी नेता राजनीतिक रूप से बहस के केंद्र में नहीं होता है। क्योंकि जेपी आंदोलन के दौर में उभरे ये नेता पूरे बिहार के प्रत्येक इलाके के लोगों से परिचित हैं।
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जबकि तेजस्वी, चिराग जैसे ‘नेताओं’ को उतने दौरे करने की जरुरत भी नहीं होती, जिसका एक कारण यह भी है कि सोशल मीडिया के दौर में बहुत सारे मौकों पर मोबाइल के माध्यम से ही संवेदना जता दी जाती है.
राजद में लालू प्रसाद यादव बड़े मास कम्यूनिकेटर हैं, राजनीतिक अनुभव है, लेकिन जेल में हैं।
सत्ता में एनडीए नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़ेगा यह स्पष्ट हो चुका है। रामविलास पासवान Ram Vilas Paswan के सत्ता छोड़ कर विपक्ष के साथ जाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। कुला मिलकर एनडीए एकजुट है।
राजद की कमान अनुभवहीन तेजस्वी यादव के पास रहेगी। जिनकी कार्य शैली से राजद के अनुभवी नेता भी अंदरखाने नाराज रहते हैं।
तेजस्वी यादव की अनुभवहीनता तब और उजागर हो जाती है जब ये विपक्ष के नेता के रूप में बीपीएससी परीक्षा में गड़बड़ी, EWS आरक्षण के विरोध में, फर्जी टीचरों की बहाली और पैदल चलते मजदूरों के लिए आन्दोलन, अनशन जैसे राजनीतिक कार्यक्रम नहीं करते हैं।
लेकिन अमरेन्द्र पांडे जैसे विधायकों की गिरफ़्तारी के सहज मुद्दे पर असहज करने वाला अस्सी विधायकों के साथ ‘गोपालगंज मार्च’ का आयोजन कर देते है। फिर सप्ताह तक सफाई भी देना पड़ता हैं कि राजद किसी अगड़ी जाति के खिलाफ नहीं है।
काश! तेजस्वी यादव ने नीतीश सरकार के नीतियों पर घेरते हुए बड़े आदोलन किये होते, आराम-परस्त राजनीति छोड़कर गाँव-गाँव कांशीराम की तरह घुमे होते, तमाम वर्गों के लोगों से खुद मिलकर राजद के साथ जोड़े होते तो जनता दल यूनाईटेड को हिम्मत नहीं पड़ती राजद के 15 की याद दिलाने की।
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लेकिन इंटेलिजेंट नीतीश बखूबी समझते है कि बिहार में उनकी पीढ़ी के अलावा और कोई लीडरशिप अभी भी उभर नहीं सकता है। गौर से देखिये, नीतीश कुमार फ्रंटफूट पर आकर बिना शोर-शराबे के अपने कार्यकर्ताओं से सीधा संवाद कर रहे हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि जिन नेताओं को वे पार्टी चलाने का जिम्मा दिए थे उनपर निर्भर रहे तो जोखिम भरी बात होगी।
सत्ता में रह कर अपनी कमियों को पहचानने में नीतीश कुमार का कोई सानी नहीं है। लोकसभा में अधिकतम अति पिछड़ा सांसद बनाकर नीतीश कुमार ने यही संदेश दिया है।
डीबीटी के माध्यम से बिहार में सीधे जनता को कैश ट्रांसफर करने का अद्भुत प्रयोग नीतीश सरकार करती रही है। इसके अलावा बकौल लालू प्रसाद यादव नीतीश के पेट में दांत है नीतीश की राजनीतिक समझ को बताता है। पूरी संभावना है कि चुनाव से पहले नीतीश कुमार राजनीतिक पिच पर जोरदार बैटिंग कर गठबंधन से लेकर विपक्ष तक को हद में डाल देंगे। जिसका सीधे वोट से सरोकार होता है।
ऐसा नहीं है कि नीतीश कुमार से पूरा बिहार संतुष्ट है। नौकरियों को लेकर, नौकरियां देने में गड़बड़ियों को लेकर, शिक्षा समेत अनेक ऐसे मुद्दे हैं जिनके कारण लोग नाराज हैं, लेकिन यह नाराजगी सत्ता के विरुद्ध लहर बन जाए इसके लिए बड़े साख वाले लीडर की जरुरत होती है।
नीतीश कुमार के खिलाफ किसी साख वाले बड़े लीडर के रूप में लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान दोनों 2010 में चुनाव लड़ चुके है। तब राजद को 22 सीटें नसीब हुई थीं।
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आगामी चुनाव मैदान में राजद के पास बड़े मास कम्यूनिकेटर लालू प्रसाद चुनावी मैदान में नहीं होंगे। रामविलास पासवान नीतीश के साथ ही होंगे।
वहीं पूरी संभावना है कि राजद से रालोसपा RLSP, कांग्रेस Congress और मुकेश सहनी की पार्टी दूर ही रहेगी। यदि एक साथ भी लड़ीं तो भी लोकसभा चुनाव के नतीजे उदाहरण के तौर पर देखे जा सकते हैं।
देश की राजनीति में नरेन्द्र मोदी बनाम राहुल गाँधी Rahul Gandhi की तरह ही बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार बनाम तेजस्वी यादव का विमर्श चल रहा है। ऐसे में नीतीश कुमार को कोई मजबूत चुनौती मिलने जा रही है, यह कतई दिखाई नहीं पड़ता है।
राजद के वोट बैंक में नीतीश कुमार, भाजपा यादव प्रत्याशी खड़ा कर सेंध लगाती है। बीते 15 सालों में राजद कभी ऐसा सेंध लगाने में सक्षम नहीं रहा है।
राजद ने अपने आधार वोट बढ़ाने के लिए एक माह पहले पार्टी में सुधार के नाम पर परम्परागत पुराने कुछ कार्यकर्ताओं को विभिन्न पदों पर बैठाया जरुर है लेकिन ऐसा करने से वोट शेयर में कोई बदलाव आएगा यह सम्भावना कम है। चूँकि नए लोगों को जोड़े बिना, अन्य समुदायों के जमीनी लोगों को बड़ी संख्या में विधायक सांसद बनाये बिना किसी पार्टी से अन्य समुदायों का जुड़ाव हो ऐसा देखा नहीं गया है।
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नीतीश अपनी जाति कुर्मी की संख्या यादव के मुकाबले कम होने के बावजूद 15 साल तक सता में रहे हैं तो सभी जातियों को अपने दल से जोड़ कर चलना एक बड़ा कारण है। जनता दल यू के नेताओं के लगने वाले पोस्टरों, रैलियों में जाते लोगों में किसी एक जाति की बहुलता नहीं देखी जा सकती है, राजद में स्थिति ठीक इसके उलट है।
इस स्थिति को बदलने के लिए राजद की और से कोई सार्थक प्रयास तक नहीं हुआ। नतीजतन नीतीश कुमार राजद के 15 साल याद दिला रहे हैं, वे जानते हैं कि 15 साल की पहचान को धूमिल करने अथवा प्रकाशित करने के लिए राजद ने कोई जन अभियान, जन संपर्क नहीं चलाया।
राजद यह कहने की स्थिति में नहीं है कि उसे 15 सालों के पुराने शासन लौटाने के नाम पर जनता वोट दे, इसलिए वो नीतीश कुमार के शासन की कमियां गिनाकर वोट लेता रहा है।
लेकिन दिलचस्प बात यह है कि नीतीश शासन के किसी भी कमी को लेकर नेता विपक्ष तेजस्वी यादव ने कोई भी जन आंदोलन अथवा अनशन तक नहीं किया है। लिहाजा तेजस्वी न परिपक्व नेता के रूप में उभर सकें न गैर यादव जातियों अथवा आम लोगों की सहानुभूति बटोर सकें। ऊपर से आरोपों की बोझ और विपक्ष के नेता की कमजोर भूमिका के कारण जनता में साख नहीं बना सकें।
साख के संकट से गुजर रहे विपक्ष से अनुभवी और इंटेलिजेंट नीतीश को कोई चुनौती मिलेगी, ऐसा प्रतीत नहीं होता है। यदि आगामी चुनाव (Bihar 2020) के बाद नीतीश कुमार अपने राजनीतिक जीवन के सबसे मजबूत जनादेश प्राप्त करें तो हैरत न करें। बिहार को विपक्ष ही ऐसा मिला है।
(लेखक दुर्गेश कुमार एक सामाजिक एवं राजनीतिक चिंतक हैं)
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